पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२०५

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( १५२ ) इस पर सहमत होकर हर्प सं राजा बनने की प्रार्थना की। इससे जान पड़ता है कि मंत्रि-परिपद् का शासन में बहुत अधिकार था। भिन्न भिन्न मंत्रियों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें सांधिविग्रहिक, रणभांडागारिक, विनयस्थितिस्थापक (न्याय का प्रबंधकर्ता), अक्ष- पटलाधिपति (आय व्यय का दिमाव रखनेवाला ) आदि मुख्य है राजा का मुख्य कार्य शासन करना था। वह मंत्रि-परिषद् से सलाह लिया करता था। राजा का कर्तव्य प्रजा में शांति रखना और उसकी रक्षा करना था । हुपन्संग ने लिखा है कि राजा का शासन दयायुक्त नियमों पर अवलंबित था। प्रजा पर किसी प्रकार की जबर्दस्ती नहीं की जाती थी। क्षत्रिय लोग बहुत पीढ़ियों से शासन कर रहे हैं, परंतु उनका उद्देश्य प्रजोपकार और दया है। एकतंत्र शासन होते हुए भी राजा परोपकारी और प्रजाहितपी शासक ( Benerolent Monarch ) था । उस समय ब्राह्मणों तथा धर्मगुरुओं का प्रभाव राजा पर बहुत राजा के कर्तव्य होता था। वह राज्य की सब प्रकार की क्रियाओं और चेन्टाओं (Activities) का उत्तरदाता था। वह केवल प्रजा के आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों की ओर हीध्यान नहीं देता था, किंतु प्रजा की धार्मिक और शिक्षा-संबंधी अवस्था पर भी लक्ष्य रखता था। बहुत से राजाओं ने धामिक उजाति में विशेप भाग लिया, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है। राजाओं ने शिक्षा की उन्नति के लिये भी विशेष प्रयत्न किया। उनके दरवार में बड़े बड़े कवियों और विद्वानों को आश्रय दिया जाता था। जब कभी कोई कवि एक उत्कृष्ट ग्रंथ तैयार करता, तो राजा दूसरे नरेशों के दरवारों से भी उसे सुनने के लिये विद्वान् प्रतिनिधि बुलाता था , काश्मीर के राजा जयसिंह के समय में मंख-रचित 'श्रीकंठचरित' सुनने

  • बाटर्स प्रान युवनच्चांग्स टू वल्स; जि० १, पृ० १६८।

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