पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. (१५३ ) के लिये कन्नौज के गोविंदचंद्र के दरवान से सुहल और उत्तरी कोकण के राजा अपरादित्य के दरवार से तेजकंठ आदि विद्वान् भेजे गए घे प्रायः प्रत्येक दरबार में कुछ कवि तथा विद्वान रहते थे, जिनका वहाँ पूर्ण सम्मान होता था। राजा लोग उन्हें नए नए ग्रंथ लिखने के लिये भी उत्साहित करते थे। शासन की सुविधा के लिये देश भिन्न भिन्न भागों में बंटा हुआ था। मुख्य विभाग भुक्ति (प्रांत ), विषय ( जिला ) और ग्राम थे। सबसे मुख्य संस्था ग्राम-संस्था थी। ग्राम-संस्था वहुत प्राचीन काल से भारतवर्ष में ग्राम संस्थानों का प्रचार था। ग्राम के लिये वहाँ की पंचायत ही सब कुछ कार्य करती थी। केंद्रीय सरकार का उसी से संबंध रहता था। ये ग्राम- संस्थाएँ एक छोटा सा प्रजातंत्र थीं इनमें प्रजा का अधिकार घा। मुख्य सरकार के अधीन होते हुए भी ये एक प्रकार से स्वतंत्र घों। प्राचीन तामिल इतिहास से उस समय की शासन-पति का विस्तृत परिचय मिलता है, परंतु हम स्थानाभाव से संनिप्त वर्णन ही शासन कार्य में राजा को सहायता देने के लियं पांच समि- तियाँ होती थीं। इनके अतिरिक्त जिलों में तीन समाएँ होती थीं। ब्राह्मण सभा में सव ब्राह्मण सम्मिलित होते छ। व्यापारियों की सभा व्यापारादि का प्रबंध करती थी। चोल राजराज ( प्रथम ) के शिलालेख सं १५० गाँवों में ग्राम-सभात्रों के होने का पता लगता है। इन सभागों के अधिवेशन के लिये बड़े बड़े भवन होते . जैसे तंजोर आदि में बने हुए हैं साधारशा गाँवों में बड़े बड़े वट- वृक्षों के नीचे समाओं के अधिवेशन होतं थे। ग्राम-सभायों के दा रूप-विचार-सभा और शासन-सभा-रहते थे। संपूर्ण मभा के सभ्य कई समितियां में विभक्त कर दिए जात छ । कृषि और उद्यान, सिंचाई, व्यापार, मंदिर, दान आदि के लिये भिन्न भिन्न म०-२० देंगे।