पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२१०

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( १५७ ) , .. थीं, जब कि उन पर सरकारी मुहर हो, प्रांतीय शासक की स्वीकृति हो, राजा का हस्ताक्षर और तत्संबंधी सब क्रियाएँ ठोक हो। राजा की तरफ से दी गई तमाम सनदों पर राजमुद्रा की छाप हाती घी, यहाँ तक कि दानपत्रों के साथ जुड़ो हुई और ताँवे पर ढली हुई बड़ी बड़ी राजमुद्राएँ मिलती हैं, जिनमें कहीं कहीं राजा के पूर्वजों की पूरी नामावली तक रहती थी। ऐसी मुद्राओं में कन्नौज के रघु- वंशी प्रतिहार राजा भोजदेव तथा मौखरी शर्ववर्मा आदि की मुद्राएँ उल्लेखनीय हैं। स्थानीय सरकारों के भिन्न भिन्न कर्मचारियों के नाम भी शिला- लेखों में मिलते हैं, जिनमें से हम कुछ यहाँ दंते हैं, जैसे महत्तर (ग्राम-सभा के सभ्य ), ग्रामिक (ग्राम का मुख्य शासक ), शौकिक ( कर लेनेवाला कर्मचारी ), गाल्मिक ( किन्नों का अध्यक्ष), ध्रुवाधिकरण (भूमि-कर लेनेवाला), भांडागाराधिकृत ( कोपाध्यन्न ), तलवाटक (ग्राम का हिसाब रखनेवाला)। कुछ छोटे छोटे कर्म- चारियों के नामों का उल्लेख भी मिलता है। वर्तमान क्लर्क के नाम 'दिविर' और 'लेखक' थे। 'करणिक' आजकल कं रजिस्ट्रार का काम करता था। इन कर्मचारियों के अतिरिक्त दूसरे भी बड़े यह कर्मचारी रहते थे। दंडपाशिक, चौराद्धरणिक आदि पुलिस के कर्मचारियों के नाम थे। राज्य की आय कई विभागों से होती थी। सबसे अधिक प्राय भूमि-कर से थी । भूमि-कर उपज का छठा हिस्सा होता था। किमानां

  • मुद्राशुद्ध क्रियाशुद्ध मुक्तिशुद्धं सचिह्नकम् ।

राज्ञः स्वहस्तशुद्धच शुद्धिमाप्नोति शासनन् ।। शिलारावंशी राजा रहराज का शक संवत् ६३० (वि.सं. २०६५)का दानपत्र। एपिग्रामिया इंडिका; जिल्द ६, पृ०६०२ । । चिंतामणि विनायक वैद्य: हिस्टी आ. मिडिएट इंडिया, जि.:. पृ० १२८-५६; राधाकुमुद मुरूजी; हर्प; पृ० १८३.६। ' -