(१५६) कानून में त्रियों की भी राजनीतिक स्थिति खीकत की जाती थी। उत्तराधिकार-संबंधी नियमों में खो की संपत्ति का भी अच्छा विवेचन किया गया है। पुत्र के न होने पर लड़की स्त्रियों की राजनीतिक स्थिति ही पिता की संपत्ति की अधिकारिणी होती थी। अपने पित-गृह की ओर से मिलनेवाले धन पर मी का पूर्ण स्वत्व रहता था। मनु ने भी इसका उल्लेख किया है। राज्य की ओर से व्यापार और व्यवसाय की रक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कारीगरों की रक्षा के लिये विशेप नियम बने हुए थे। यदि कोई व्यापारी अनुचित उपायों द्वारा वस्तुओं का मूल्य प्रादि बढ़ा देता या बाट और नाप कम या अधिक रखतातो उसे दंढ मिलता था। उस समय के शासन का कुछ परिचय तत्कालीन कर्मचारियों के नामों से मिलता है। राजा या सम्राट के नीचे बहुत से छोटे छोटे राजा होते थे, जिन्हें महाराजा, महासामंत शासन-प्रबंध आदि उपाधियाँ मिलती थी। ये राजा सम्राट के दरवार में उपस्थित होते थे, जैसा कि वाण के वर्णन से विदित होता है। कभी जागीरदार भी ऊँचे पदों पर पहुँच जाते थे। प्रांत के शासक को 'उपरिक महाराज' कहते थे। फई शिलालेखों में प्रांतीय शासकों के गोप्ता, भोगिक, भोगपति, राज- स्थानीय आदि नाम भी मिलते हैं। प्रांतीय शासक, विषय या जिले के शासक को नियुक्त करता था, जिसे विषयपति या आयु- तक कहते थे। विपयपति अपने जिले के मुख्य स्थान में, जिसे अधिष्ठान कहते थे, अपना अधिकरण या दफ्तर रखता था । प्रांतीय शासकों के पास राजा की लिखित आज्ञाएँ जाती थीं एक ताम्रपन से पता लगता है कि ये आज्ञाएँ तभी ठोक मानी जाती
- विनयकुमार सरकार; दी पोलिटिकल इंस्टिटय शंस एंड ध्य रीज श्राफ दी
हिंदूज, पृ० २७-३० ।