पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२१४

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~ - - पिछले समय में भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत अधिक अच्छी नहीं रही। छोटे छोटे राज्य बनते जा रहे थे। हर्प और पुलकेशी के बाद तो इन दोनों का राज्य कई भागों में विभक्त ही गया । सोलंकी, पाल, सेन, प्रतिहार, यादव, गुहिल, राठोड़ आदि कई वंश अपनी अपनी उन्नति में लगे हुए थे। कहने का अभिप्राय यह है कि संपूर्ण भारत के बहुत से राज्यों में विभक्त होने से उनकी शक्तियाँ विखर गई। भारत में एक राष्ट्रीयता का भाव प्रबल रूप से नहीं था। इन राज्यों के पारस्परिक युद्धों से देश की शांति नष्ट होती रही। इसका स्वाभाविक परिणाम देश की शासन पद्धति तथा अन्य राजकीय संस्थाओं पर पड़ा। सव राजा शनैः शनैः अधिक स्वतंत्र और उच्छृखल होते गए। देश के शासन की ओर उनका अधिक ध्यान न रहा । प्रजा की आवाज की सुनवाई कम होने लगी राजानी को सेना की विशेष आवश्यकता होने पर उन्होंने प्रजा पर अधिक कर लगाए। राजा स्वयं ही मंत्रियों की नियुक्ति करता था। जनसभा या क्रमागत मंत्रि-परिषद् नहीं थी। इस समय तक राज्य के पुराने अधिकारी ही चले आते थे। ग्यारहवीं और बारहवी नदी के शिलालेखों में राजामात्य, पुरोहित, महाधर्माध्यक्ष, महामांधिविग्र- हिक, महासेनापति, महामुद्राधिकृत ( राजमुद्रा का रनर ), महान- पटलिक और महाभोगिक आदि अधिकारियों के नाम मिलते हैं. जिनसे विदित होता है कि शासन-प्रबंध में विशेष परिवर्तन नहीं हुत्रा था। इन अधिकारियों में 'महा' शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि इनके अधीन भी बहुत से कर्मचारी रहते थे। रानी और युवराज भी शासन में भाग लेते थे। कुछ राज्यों में छोट हाट कर बढ़ा दिए गए। पिछले राजाओं के समय में कई कर लगने का कार्ड . , >

  • चिंतामणि विनायक वैद्य; हिस्ट्री श्राप निडियर इंडिया, जि. :,

पृ० १५३-१४ । म.-29