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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/२२७

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NE शिल्प तक्षण-कला-संबंधी शिल्प के मुख्य चार विभाग किए जा सकते गुफा, मंदिर, स्तंभ पार प्रतिमा। हमारे यहां तक्षणकला का विकास विशेषत: धार्मिक भावों से हुआ है। रुप चौद्धस्तूप, चैत्य 'पार विहार श्रादि शिल्प के सब से प्राचीन सुरक्षित कार्य हैं : महात्मा बुद्ध का निर्वाण होने पर उनका शरीर जलाया गया और उनकी हशियां आदि पर भिन्न भिन्न जाति के लोगों ने स्तूप बनवाना शुरू किया, जो वाद्धों में बहुत ही पूजनीय समझे जाने लगे; पीछे से बड़े सुंदर कामवालं कई स्तूप बने। स्तूप एक मंदिर की तरह पूजनीय समझा जाता था और उसके चारों तरफ सुंदर कारीगरीवाले विशाल द्वार, तोरण आदि वनाए जाते थे और ऐसे ही कामवाली वेष्टनी ( Railings) से वे चारों तरफ से अलंकृत किए जाते थे। ऐसे स्तूपों में साँची और भरहुत के स्तूप मुख्य है, जो ई० सन् के पूर्व की तीसरी और दूसरी शताब्दी के आसपास के हैं। अब तक इन पर बौद्धधर्म के पूजनीय चिह्न-धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, हाथी आदि-तथा बुद्ध के पूर्वजन्म की भिन्न भिन्न कथाएँ बड़ी सुंदरता के साथ पत्थरों पर उभरी हुई अंकित है। हमारे यहाँ पहाड़ों को काट काटकर बनाई हुई दो प्रकार की भव्य गुफाएँ-चैत्य और विहार-हैं। चैत्य के भीतर एक स्तूप होता है और जन-समाज के एकत्र होने के लिये गुफाएँ विशाल भवन (Assembly IIall) होता है। ऐसी गुफाओं में कार्ली आदि कई गुफाओं का उल्लेख किया जा सकता है। विहार अर्थात् मठ में साधु-भिक्षुकों के रहने के लिये अलग अलग कमरे बने हुए होते हैं। ऐसी गुफाएँ विशेषतः दक्षिण में मिलती हैं, जिनमें से अजंटा, इलोरा, कार्ली, भाजा, बेडसा श्रादि मुख्य हैं। दक्षिण के अतिरिक्त काठियावाड़ में जूनागढ़ के