(१६२) . बर: ', 'दुंदुभि', 'शूमि दमित्यादि नामों में प्रमिद । प्राधु- निक वैज्ञानिकों का मन कि भारतीय मुगप्पादियाजे तक शा. निफ सिद्धांत पर बनाए जाने । पाश्चात्य निदान का माना कि तार के वालों का प्रचार मी जाति में ना नंगा जिमने संगीत में पूर्ण उन्नति कर ली। मंगलों में योगा सर्वोत्तम मानी गई है, और वैदिक काल में यहां का वात प्रनार होना यही बतलाता है कि संगीत कला में उस समय भी यही उन्नति कर ली थी, जब कि संमार की बात सी जातियां सभ्यता के निकट भी नहीं पहुँचने पाई थीं। प्राचीन काल में भारत के राजा सादि संगीत के शान को बड़े गौरव का विषय समझने च पार अपनी संतान की इस कला की शिक्षा दिलाते : पांडवों के बारह वर्ष के गनवास के पीछे एक वर्ष के अज्ञातवास के समय अर्जुन ने अपने को वृहलन्ना नागक नपुं- सक प्रकट कर राजा विराट की पुत्री उत्तरा को संगीत सिखाने की सेवा स्वीकार की थी। पांडवंशी जनमेजय का प्रपात्र उदयन, जिसको वत्सराज भी कहते थे, यागंधरायण आदि मंत्रियों पर राज्य- भार डालकर वीणा बजाने और मृगयादि-विनोद में सदा लगा रहता था। वह अपनी वीणा के मधुर स्वर से हाथियों को वश कर वनों में से उन्हें पकड़ लाया करता था। एक समय अपने शत्रु उज्जैन के राजा चंडमहासेन ( प्रद्योत ) के हाथ में वह कैद हुआ और संगीत कला में निपुण होने के कारण चंडमहासेन ने उसे अपनी पुत्री वासवदत्ता को संगीत सिखाने के लिये नियुक्त किया। इन दो ही उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्राचीन काल के राजा संगीत-प्रिय 9
- वाजसनेयी संहिता ३० । १६ ।
+ऋग्वेद ५ २८।५। म तैत्तिरीय संहिता ७ । ५। ६ । ३ ।