( १३ ) के मध्य में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी की धर्मपरिषद् में उनके धर्मग्रंथों को लिपिबद्ध कराया । बौद्ध भिक्षुओं का जीवन जैन साधुओं की अपेक्षा अधिक सरल और कम कठोर एवं तपस्यामय होता था, जिससे भी लोगों का आकर्षण बौद्ध मत की ओर अधिक हुआ। फिर जैनधर्म को राजधर्म वनाकर उसका प्रचार करनेवाले राजा कम मिले, जैसे कि बौद्ध धर्म को अशोक और कनिष्क आदि मिले थे। केवल कलिंग के राजा खारवेल ने, जो ई० सन् की दूसरी शताब्दी के आस- पास हुआ था, जैन धर्म को स्वीकार कर उसकी कुछ उन्नति की। इन कारणों से जैन धर्म का प्रचार बहुत शनैः शनैः हुआ । हमारे निर्दिष्ट काल में जैन धर्म का प्रचार आंध्र, तामिल, कर्ना- टक, राजपूताना, गुजरात, मालवा तथा बिहार और उड़ीसे के कुछ भाग में था। दक्षिण में ही जैनों ने अपने जैन धर्म की उन्नति मत का विशेष प्रचार किया। वहाँ वे संस्कृत और अवनति भाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग करते थे जिसका परिणाम यह हुआ कि दक्षिण की तामिल, आंध्र आदि भाषाओं में संस्कृत के बहुत से शब्द मिल गए। जैनों ने वहाँ पाठशालाएँ भी आज भी वहाँ वालकों को वर्णमाला सिखाते समय पहला वाक्य 'ऊँ नमः सिद्धम्', पढ़ाया जाता है, जो जैनों की नमस्कार- विधि है। दक्षिण में कई राजाओं ने जैन धर्म को आश्रय दिया । तामिल प्रदेश में पांड्य और चोल राजाओं ने जैन गुरुओं को दान दिए, उनके लिये मदुरा के पास मंदिर और मठ वनवाए। शनैः शनैः जैनों में भी मूर्तिपूजा का प्रचार बढ़ा और तीर्थकरों की मूर्तियाँ वनने लगीं। हमारे निर्दिष्ट समय के मध्य काल से इस धर्म का उधर हास होना भी प्रारंभ हो गया।
- सी० वी० वैद्य ; हिस्टी श्राफ़ मीडिएवल इंडिया; जिल्द ३,
खोली। पृष्ट ४०५-६॥