पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/४२

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(१६) के संबंध में किया जायगा । रामानुज के इस संप्रदाय का प्रचार दक्षिण में अधिक और उत्तर में कम हुआ । ग्यारहवीं सदी और उसके पीछे के वैष्णव प्राचार्यो का मुख्य उद्देश्य अद्वैतवाद को दूर करके भक्ति संप्रदाय स्थापित करना था। यद्यपि रामानुज ने विशिष्टाद्वैत संप्रदाय चला- सध्वाचार्य और उनका लंप्रदाय कर शंकर के अद्वैत के प्रभाव को नष्ट करने का प्रयत्न किया, तथापि वह उसमें पूर्णतया सफल न हुआ । विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों से ब्रह्म और जीव से परस्पर भेद सिद्ध न हुआ, इसलिये बारह- वीं शताब्दी के वैष्णव आचार्य मध्वाचार्य को विशिष्टाद्वैत संतुष्ट न कर सका। उसने परमात्मा, आत्मा और प्रकृति तीनोंको भिन्न मानकर अपने नाम से 'मध्व' संप्रदाय चलाया। इसके दार्शनिक सिद्धांतों का परिचय हम दर्शन के प्रकरण में देंगे। मध्वाचार्य का जन्म शक संवत् १११६ ( ई० स० ११६७ ) में हुआ था। उसने भी वेदांत-दर्शन और उपनिषदों का अपने सिद्धांतों के अनुकूल भाष्य किया। किसी प्रामाणिक ग्रंथ का आश्रय लिये बिना सफलता का मिलना कठिन इसलिये रामायणवर्णित राम और सीता की मूर्तियों की पूजा पर उसने जोर दिया और अपने शिष्य नरहरितीर्थ को जगन्नाथ ( उड़ीसा ) में राम और सीता की मूर्तियाँ लाने को भेजा। नर- हरितीर्थ के अतिरिक्त उसके प्रमुख शिष्य पद्मनाभतीर्थ, माधवतीर्थ और अक्षोभ्यतीर्थ थे। मध्व संप्रदायवाले वैराग्य, शम, शरणागति ( ईश्वर के शरण में अपने को सौंप देना), गुरुसेवा, गुरुमुख से अध्ययन, परमात्मभक्ति, अपने से बड़ों में भक्ति, समवयस्कों में प्रेम और अपने से छोटों पर दया, यज्ञ, संस्कार, सव कार्य हरि के समर्पण करना तथा उपासना आदि अनेक साधनों से मोक्ष की प्राप्ति

  • सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर हत; वैष्णविज्म, शैविज्म एंड अदर

माइनर रिलिजस लिस्टम्स; पृ० ५१-५७ । था, -