सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. ( १८ ) प्रचार नवीं शताब्दी के आसपास हुश्रा और उधर के आलवार राजा कृष्ण के परम भक्त थे पीछे से आलवार भी राम के भक्त होने लग गए। यह आश्चर्य की बात है कि राम के विष्णु के अवतार होते हुए भी दसवीं शताब्दी तक उनके मंदिरों या मूर्तियों के होने का कहीं पता नहीं लगता; और कृष्ण के समान राम की भक्ति प्राचीन काल में रही हो, ऐसा नहीं पाया जाता। पीछे से राम की भी पूजा होने लगी और राम-नवमी आदि त्यौहार मनाए जाने लगेशः । शंकराचार्य के अद्वैतवाद के प्रचार से भक्ति-मार्ग को गहरा धक्का लगा। आत्मा और ब्रह्म में एकता होने पर किसी की भक्ति की आवश्यकता न रही, इसलिये रामानुज ने, रामानुजाचार्य का जिसका जन्म १०१६ ई० में हुआ, भक्ति-मार्ग विशिष्टाहत संप्रदाय का प्रचार करने के लिये अद्वैतवाद का खंडन करना प्रारंभ किया। उस समय के चोल राजा ने, जो शैव था, रामानुज की वैष्णव धर्म में भक्ति देखकर उसे सताया, भागकर द्वारसमुद्र के यादवों के पास पहुँचा और वहीं उसने अपना कार्य प्रारंभ किया। फिर मैसूर के राजा विष्णुवर्द्धन को वैष्णव बनाकर वह दक्षिण में अपना प्रचार करने लगा। उसने लोगों को बताया कि भक्तिमार्ग के लिये ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों की आवश्यकता है। तीर्थयात्रा, दान आदि से आत्मा की शुद्धि होती है। ज्ञानयोग भक्ति की ओर ले जाता है और भक्ति से ईश्वर का साक्षात्कार होता है। जीवात्मा और जगत् दोनों ब्रह्म से भिन्न होने पर भी वस्तुतः भिन्न नहीं हैं। सिद्धांत में ये एक ही हैं, परंतु कार्यरूप में एक दूसरे से भिन्न और विशिष्ट गुणों से युक्त इस संप्रदाय के विशेप दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन दर्शन जिससे वह यज्ञ, व्रत,

  • सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकरकृत; वैष्णविज्म, शैविज्म एड अदर

माइनर रिलिजस सिस्टम्स; पृ० ३६-४७ ।