पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/५०

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( २१ ) माननेवाले भिन्न भिन्न प्रकार की शिव की मूर्तियाँ बनाने और पूजने लगे। वे शिव की मूर्ति के या तो छोटे स्तंभ की प्राकृति का गोल लिंग, या ऊपर का भाग गोल और चारों तरफ शैव संप्रदाय चार मुख बनाने लगे। ऊपर का भाग विश्व या ब्रह्मांड का सूचक और चारों तरफ के मुखों में से पूर्ववाला सूर्य का, उत्तरवाला ब्रह्मा का, पश्चिमवाला विष्णु का और दक्षिणवाला रुद्र का सूचक होता था। कुछ मूर्तियाँ ऐसी भी मिली हैं, जिनके चारों ओर मुख नहीं, किंतु इन चारों देवताओं की मूर्तियाँ ही बनी हुई हैं। कुछ ऐसी मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं, जिनमें ऊपर तो चारों मुख हैं और नीचे उनके सूचक देवताओं की खड़ी मूर्तियाँ बनी हैं। इन मूर्तियों को देखने से अनुमान होता है कि उनके बनानेवालों का यही मंतव्य होगा कि जगत् का निर्माता शिव और ये चारों देवता उसी के नाम के भिन्न भिन्न रूप हैं। शिव की विशालकाय त्रिमूर्ति भी कहीं कहीं पाई जाती है। उसके छः हाथ, जटा सहित तीन सिर और तीन मुख होते हैं, जिनमें से एक रोता हुआ होता है, जो शिव के रुद्र कहलाने का सूचक है। उसके मध्य के दो हाथों में से एक में वीजारा तथा दूसरे में माला, दाहिनी तरफ के दो हाथों में से एक में सर्प और दूसरे में खप्पर और वाई ओर के दो हाथों में से एक में पतले दंड सी कोई वस्तु और दूसरे में ढाल या काच की प्राकृति का कोई छोटा सा गोल पदार्थ होता है । त्रिमूर्ति वेदी के ऊपर दीवार से सटी रहती है और उसमें छाती से कुछ नीचे तक का ही हिस्सा होता है। त्रिमूर्ति के सामने भूमि पर बहुधा शिवलिंग होता है। ऐसी त्रिमूर्तियाँ बंबई से ६ मील दूर के घारापुरी ( Elephanta) नामक टापू, चित्तौड़ के किले, सिरोही राज्य आदि कई स्थानों में देखने में आई हैं, जिनमें सबसे पुरानी घारापुरीवाली है। शिव के ताण्डव- नृत्य की पाषाण या धातु की मूर्तियाँ भी कई जगह मिली हैं .