इस पर उसके (२२) शैव संप्रदाय सामान्य रूप से पाशुपत संप्रदाय कहलाता था, फिर उसमें लकुलीश संप्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ, जिसकी उत्पत्ति के संबंध में ई०स० ६७१ के शिलालेख में लिखा शैव संप्रदाय की है कि पहले भड़ौच में विष्णु ने भृगु मुनि को. मिन भिन शाखाएँ और शाप दिया, तो. भृगु ने शिव की आराधना उनके सिद्धांत कर उनको प्रसन्न किया । सम्मुख हाथ में लकुट (डंडा) लिए हुए शिव का कायावतार हुआ। हाथ में लकुट लिए होने से वह लकुटीश ( लकुलीश अथवा नकु- लीश) कहलाया और जिस स्थान में वह अयतार हुआ, वह कायावतार (कारवान, बड़ौदा राज्य में ) कहलाया, और लकुलीशों का मुख्य स्थान समझा गया। लकुलीश की कई मूर्तियाँ राजपूताना, गुज- रात, काठियावाड़, दक्षिण ( मैसूर तक ), बंगाल और उड़ीसा में पाई जाती हैं, जिससे ज्ञात होता है कि यह संप्रदाय बहुधा सारे भारत- वर्ष में फैल चुका था। उस मूर्ति के सिर पर वहुधा जैन मूर्तियों के समान केशः होते हैं, वह द्विभुज होती है, उसके दाहिने हाथ में बीजोरा और बाएँ में लकुट होता है। वह मूर्ति पद्मासन बैठी हुई होती है। लकुलीश के . ऊर्ध्वरेता होने का चिह्न (ऊर्ध्वलिंग) मूर्ति में बना रहता है लकुलीश के चार शिष्यों-कुशिक, गर्ग, मित्र और कौरुष्य- के नाम लिंग पुराण (२४-१३१ ) में मिलते हैं, जिनके नाम से चार शैव उपसंप्रदाय चले। आज लकुलीश संप्रदाय को मानने- वाला कोई नहीं रहा और अव सर्वसाधारण में से भी बहुत थोड़े से लोग लकुलीश नाम से परिचित हैं। पाशुपत संप्रदाय के लोग महादेव को ही सृष्टि का कर्ता, धर्ता और हर्ता समझते हैं। योगा- भ्यास और अस्मस्नान को वे आवश्यक समझते हैं और मोक्ष को मानते हैं। ये छः प्रकार की-हास, गान, नर्तन, हुडुक्कार (बैल .
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