पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/५६

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( २५ ) जो चाँदी की डिबिया में रहता है, क्योंकि इनका विश्वास है कि शिव ने अपने तत्त्व को लिंग और अंग में विभक्त कर दिया था। विशिष्टा- द्वैत से इस संप्रदाय की कुछ समानता है। यह संप्रदाय वैदिक मत से बहुत बातों में भिन्न है। यज्ञोपवीत संस्कार की जगह वहाँ दीक्षा संस्कार होता है। गायत्री मंत्र की जगह वे 'ॐ नम: शिवाय' कहते हैं और यज्ञोपवीत की जगह गले में लिंग लटकाते हैं। तामिल प्रदेश में भी शैव संप्रदाय का बहुत प्रचार हुआ। ये शैव, जैनों और बौद्धों के शत्रु थे। इनके धार्मिक साहित्य के ग्यारह संग्रह हैं, जो भिन्न भिन्न समय पर लिखे गए । दक्षिण में शैव संप्र- सबसे अधिक प्रतिष्ठित लेखक तिरुवानसंबंध दाय का प्रचार हुआ, जिसकी मूर्ति तामिल प्रदेश के शैव मंदिरों में पूजा के लिये रखी जाती है। तामिल कवि और दार्श- निक अपने ग्रंथ के प्रारंभ में उसी के नाम से मंगलाचरण करते हैं। कांचीपुर के शैव मंदिर के शिलालेख से छठी सदी में शैवधर्म के दक्षिण में प्रचार होने का पता लगता है। पल्लव शासक राजसिंह ने, जो कि संभवत: ५५० ई० के आस पास हुआ था, राजसिंहे- श्वर का शिवमंदिर बनवाया। यह निश्चित है कि इनके दार्शनिक सिद्धांत भी अवश्य विकसित थे क्योंकि राजसिंह के शैव सिद्धांतों में निपुण होने का उल्लेख शिलालेख में मिलता है, परंतु वे क्या थे, यह मालूम नहीं हो सका* । ब्रह्मा सृष्टि का उत्पादक, यज्ञों का प्रवर्तक और विष्णु का एक अवतार माना जाता है। ब्रह्मा की मूर्ति चतुर्मुख होती है, परंतु जो मूर्ति दीवार से लगी होती है, उसके तीन मुख ही दिखाए जाते हैं और परिक्रमावाली मूर्ति के चारों मुख । ऐसी चतुर्मुख मूर्तियाँ

  • . सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकरकृत वैष्णविज्म शैविज्म एंड अदर

माइनर रिलिजस सिस्टम्स; पृष्ट ११५-१४२ ।