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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/६६

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( २७ ) केवल परमात्मा के भित्र भिन्न नामों को ही देवता मानकर उनकी पृथक पृथक उपासना प्रारंभ नहीं हुई, किंतु ईश्वर की भिन्न भिन्न शक्तियों और देवताओं की पत्नियों की भी शक्तिपूजा कल्पना की जाकर उनकी पृथक पृथक पूजा होने लगी। प्राचीन साहित्य को देखने से ऐसी देवियों के बहुत से नाम पाए जाते हैं। ब्राह्मो, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही और ऐंद्रो इन सात शक्तियों को मातृका कहते हैं। कुछ भयंकर और रुद्र शक्तियों की कल्पना भी की गई, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं-कालो, करालो, कापाली, चामुंडा और चंडी। इनका संबंध कापालिकों और कालामुखों से है। कुछ ऐसी भी शक्तियों की कल्पना हुई, जो विषय-विलास की ओर ले जानेवाली हैं। इस प्रकार की देवियाँ आनंद-भैरवी, त्रिपुरसुंदरी और ललिता आदि हैं। उनके उपासकों के मंतव्य के अनुसार शिव और त्रिपुरसुंदरी के योग से ही संसार बना है। नागरी वर्णमाला के प्रथम अक्षर 'अ' से शिव और अंतिम अक्षर 'ह' से त्रिपुरसुंदरी अभिप्रेत है। इस तरह दोनों का योग 'अहं' कामकला का सूचक है* | भैरवी चक्र शाक्तों का एक मुख्य मंतव्य है। इसमें स्त्री के गुह्य भाग के चित्र की पूजा होती है। शाक्तों में दो भेद हैं. कौलिक और समयिन। कौलिकों में दो भेद कौलमत हैं,प्राचीन कौलिक ती योनि के चित्र की और दूसरे वास्तविक योनि की पूजा करते हैं। पूजा के समय वे (कौलिक) मद्य, मांस, मीन आदि का भक्षण भी करते हैं। समयिन इन क्रियाओं से दूर रहते हैं। कुछ ब्राह्मण भी कोलिकों के सिद्धांत

  • सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर कृत वैष्णविजम शैविज्म एंड पदर

माइनर रिलिजस सिस्टम्स; पृ० १४२-४६ ।