पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/६७

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( २८ ) मानते थे। इस भैरवी चक्र के समय वर्णभेद नहीं माना जाता । नवीं शताब्दी के अंत के आस-पास होनेवाले कवि राजशेखर ने अपने 'कर्पूरमंजरी' नामक सट्टक में भैरवानंद के मुख से कौलमत का वर्णन इन शब्दों में कराया है- मंताण तताण ण किं पि जाणे माणं च णो कि पि गुरुप्पसायो । मज्जं पियामा महिलरमामो मोक्खं च जामो कुलमग्गलग्गा ॥ २२ ॥ अवि अ- रंडा चंडा दिक्खिया धम्मदा मज्ज मंसं पिजए खज्जए । भिक्खा भोज चम्मखंडं च सेजा कोले। धम्मो कस्स णो भाइ रम्मा ॥२३॥ अर्थ-हम मंत्र तंत्रादि कुछ नहीं जानते, न गुरुकृपा से हमें कोई ज्ञान प्राप्त है। हम लोग मद्यपान और स्त्री-गमन करते हैं और कुलमार्ग का पालन करते हुए मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ पुनश्च- कुलटाओं को दीक्षित कर हम धर्मपत्नी बना लेते हैं लोग मद्य पोते और मांस खाते हैं। भिक्षान्न ही हमारा भोजन और चर्मखंड शय्या है। ऐसा कौल धर्म किसे रमणीय प्रतीत नहीं होता ? ।। २३ ॥ इन सब देवियों के अतिरिक्त गणेश की पूजा हमारे समय से भी पूर्व प्रारंभ हो चुकी थी। गणेश या विनायक, रुद्र के गणों का याज्ञवल्क्य स्मृति में गणेश और उसकी माता अंबिका की पूजा का वर्णन मिलता है। न तो चौथी शताब्दी से पूर्व की कोई गणपति की मूर्ति मिली और न उस समय के शिलालेखों में उसका उल्लेख मिलता है। इलोरा की गुफाओं में कतिपय देवियों की मूर्ति के

  • सर रामकृष्ण गोपाल भांडारकर कृत वैष्णविज्म शैविज्म एंड अदर

माइनर रिलिजस सिस्टम्स पृष्ठ १४६-४७ । + कर्पूरमंजरी, प्रथम जवनिकांतर; हार्वर्ड संस्करण, पृष्ठ २४-२५ । नेता था। गणेश पूजा .