। . गृति या ( ३२ ) राज्यवर्द्धन और आदित्यवर्द्धन के परमादित्यभक्त होने का उल्लेख है। सूर्य के पुत्र रेवंत की भी घोड़े पर बैठी हुई मूर्तियाँ मिलती है वह घोड़ों का अधिष्ठाता देवता माना जाता है और उसके पैरों में भी सूर्य के समान लंवे बूट देख पड़ते हैं । इसी तरह अष्ट दिकपालों-इंद्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, मरुत्, कुबेर और ईश (शिव)-की भी मूर्तियाँ थीं। ये मूर्तियाँ मंदिरों में पूजी जाती थीं और कई मंदिरों श्रादि पर अपनी अन्य देवताओं की अपनी दिशाओं के क्रम से लगी हुई भी पाई जाती हैं। अष्ट दिकपालों की कल्पना भी बहुत प्राचीन है। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में धनपति ( कुबेर ) के मंदिर में मृदंग, शंख और तूणव (वंसी) के वजने का उल्लेख किया है।। हिंदुओं में जव मूर्तियों की कल्पना का प्रवाह चल पड़ा, तब देव- ताओं की मूर्तियाँ तो क्या, ग्रह, नक्षत्र, प्रातः, मध्याह्न, सायं, आदि समयविभाग, शस्त्रों, नदियों, कलि आदि युगों तक की मूर्तियाँ बना डाली गई। पीछे से भिन्न भिन्न देवताओं के उपासक हिंदुओं में भेद- भाव या द्वेष नहीं रहा। ताम्रपन्नादि से पाया जाता है कि एक राजा परम वैष्णव था, तो उसके पुत्रादि परम माहेश्वर या भगवती के भक्त होते थे , अंत में हिंदुओं के पाँच-सूर्य, विष्णु, देवी, रुद्र और शिव-मुख्य उपास्य देवता रह गए, जिन्हें सामान्य रूप से पंचा- यतन कहते हैं। शिव विष्णु आदि के ऐसे पंचायतन मंदिर भी मिलते हैं और घरों में भी पंचायतन पूजा होती है। जिस देवता का मंदिर होता है उसकी मूर्ति मध्य में और चारों कोनों में अन्य चार देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं। . - "
- सर रामकृष्णगोपाल भांडारकरकृत वैष्णविज्म शैविज्म एंड अदर
माइनर रिलिजस सिस्टम्स; पृष्ट १५१-५५ । पाणिनि के सूत्र २ । २ । ३४ पर पतंजलि का गाप्य । -