पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/८१

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-- ( ३६ ) सामना करना पड़ा : उस समय अहिंसा और वैराग्य का प्रचार था; ब्राह्मण भी प्राचीन अग्निहोत्र और यज्ञों को छोड़कर पौराणिक देवी देवताओं का प्रचार कर रहे थे। ऐसी अवस्थाओं में उसके सिद्धांत अधिक लोकप्रिय न हो सके, इसलिये उसके द्वारा वेदों का प्रचार व्यापक रूप से न हो सका। कुमारिल के कुछ समय बाद शंकराचार्य केरल प्रांत के कालपी गाँव में, ७८८ ई० में, उत्पन्न हुए। उन्होंने बहुत छोटी अवस्था में ही प्रायः सव ग्रंथ पढ़ लिए और वे एक बड़े शकराचार्य और भारी दार्शनिक विद्वान् बन गए। बौद्धों और उनके सिद्धांत जैनों के नास्तिकवाद को वे नष्ट करना चाहते थे, परंतु साथ ही यह जानते थे कि कुमारिल भट्ट की तरह वहुत सी बातों में जनता के विरुद्ध होने से कुछ नहीं हो सकता। उन्होंने ज्ञानकांड का और अहिंसा के सिद्धांतों का आश्रय लेते हुए वेदों का प्रचार किया और संन्यास मार्ग को ही अधिक प्रधानता दी । ब्रह्म का अस्तित्व स्वीकार करते हुए उन्होंने देवी देवताओं की पूजा का विरोध भी नहीं किया। उनके मायावाद और अद्वैतवाद के कारण, जो वौद्धों के विज्ञानवाद से विशेष भिन्न नहीं थे. बौद्ध भी उनकी ओर आकर्पित हुए। इसी लिये चे "प्रच्छन्न बौद्ध' कहलाते हैं। उन्होंने उपर्युक्त मंतव्यों को मानकर वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने का बहुत वेग से प्रचार किया। उनके दार्शनिक विचारों तथा कार्य का वर्णन हम दर्शन के प्रकरण में करेंगे। वे अपने विचारों और सिद्धांतों का प्रचार प्रायः संपूर्ण भारतवर्ष में घूम घूमकर करते रहे और भिन्न भिन्न मताव- लंबियों से बहुत शास्त्रार्थ कर उन्होंने उन्हें परास्त किया। उन्होंने सोचा कि अपने सिद्धांतों का स्थायी रूप से प्रचार करने के लिये स्थिर संस्थाओं की आवश्यकता है, इसलिये भारतवर्ष की चारों

  • चि०वि०वैद्य; हिस्ट्री श्राफ मिडिएवल इण्डिया; जि०२, पृष्ट २०६-१२ ।

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