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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/८०

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( ३५ ) अस्पृश्यता आदि वातें हमारे समय के पिछले काल में प्रचलित हुई। इनसे हिंदू धर्म में संकीर्णता ने बहुत प्रवेश कर लिया और यह संकीर्णता शनैः शनैः बढ़ती गई। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य हमारे निर्दिष्ट ससय के भारत के धार्मिक इतिहास में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य का विशेष स्थान है। हम पहले कह चुके हैं कि चौद्धों और जैनियों ने ईश्वर के अस्तित्व कुमारिल भट्ट और और वेदों में ईश्वरीय ज्ञान होने को स्वीकृत उसके सिद्धांत नहीं किया था। इससे साधारण जनता में ईश्वर और वेद के प्रति श्रद्धा उठती जाती थी। येही दोनों हिंदु धर्म के प्रधानभूत अंग हैं। इनके नष्ट होने से हिंदू धर्म भी नष्ट हो जाता । बौद्ध धर्म का जब प्रचार कम हो रहा था और हिंदू धर्म का प्रचार पीछे तेजी से बढ़ रहा था, उस समय ( सातवीं सदी के अंतिम भाग में ) कुमारिल भट्ट उत्पन्न हुआ। उसके निवास स्थान के विषय में विद्वानों में बहुत सत-भेद है। कोई विद्वान उसे दक्षिणी मानते हैं और कोई उसे उत्तरी भारत का निवासी । हम इस विवाद में उतरना नहीं चाहते। उसने वेदों के प्रचार के लिये बहुत प्रयत्न किया और यह बतलाया कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। उस समय की अहिंसा की लहर के विरुद्ध कर्मकांड को भी पुनरुज्जीवित करने का उसने यत्न किया। यज्ञों में पशु-हिंसा की भी उसने पुष्टि की। कर्मठ के लिये यज्ञ और उसमें पशु-हिंसा आवश्यक थी । भितुत्रों के वैराग्यवाद-संन्यासाश्रम-के भी विरुद्ध था। समय की प्रतिकूल अवस्थाओं में भी कुमारिल ने अपने सिद्धांतों का बहुत प्रचार कर लिया, यद्यपि उसे इनमें बहुत कठिनाइयां का वह बौद्ध