( ४६ ) समय तक यह भी विद्यमान था। वाण ने शूद्र स्त्री से पैदा हुए ब्राह्मण के पुत्र पारशव का उल्लेख किया है। इसी तरह मंडोर के प्रतिहारों के वि० सं० ८६४ ( ई० स० ८३७ ) और ६१८ ( ई० स० ८६१ ) के लेखों में ब्राह्मण हरिश्चंद्र का क्षत्रिय- कन्या भद्रा से विवाह होने का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण कवि राजशेखर ने भी चौहान कन्या अवंतिसुंदरी से विवाह किया था। दक्षिण में भी क्षत्रियों की त्रो से ब्राह्मणों के विवाह होने के उदाहरण मिलते हैं। गुलवाड़ा गाँव के पास की वौद्ध गुफा के एक लेख में वल्लूरवंशीय ब्राह्मण सोम का ब्राह्मण और क्षत्रिय कन्याओं से विवाह होने का वर्णन मिलता है* । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की कन्या से विवाह कर सकता थी, परंतु ब्राह्मण की कन्या से नहीं। दंडो कृत 'दशकुमारचरित' से पाया जाता है कि पाटलिपुत्र के वैश्रवण की पुत्री सागरदत्ता का विवाह कोसल के राजा कुसुमधन्वा के साथ हुआ था। ऐसे और भी कई उदाहरण मिलते हैं। इसी तरह वैश्य की कन्या से विवाह कर सकता था। सारांश यह है कि हमारे निर्दिष्ट समय में अनुलोम विवाह की प्रथा थी, प्रतिलोम की नहीं। ये संबंध उन शूद्रों के साथ, जिनको पंच महायज्ञों का अधिकार नहीं था, नहीं होते थे । प्राचीन काल में पिता के वर्ण से पुत्र का वर्ण माना जाता था। ब्राह्मण का किसी भी वर्ण की कन्या से उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण ही समझा जाता था, जैसे कि ऋषि पराशर के धीवरी से उत्पा पुत्र वेदव्याम और रेणका ( रुप्रिय कन्या ) से उत्पन्न जमदग्नि के पुत्र परशुराम ब्राह्मण कहलाए। पीठं से यह प्रथा बदल गई. प्रर्यान माता के वर्ण के अनुसार पुत्र का वर्ण माना जाने लगा। क्षत्रिय-कन्या नं नागरी प्रचारिणी पत्रिका नदीन संस्करण: भाग ६.० ६६७-२० । दाकुमारचरित; विभत कथा ।
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