पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/९५

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छूतछात और ( ५० ) उत्पन्न ब्राह्मण का पुत्र क्षत्रिय ही माना जाता था, जैसा कि शंख और उशनस आदि स्मृतियों से पाया जाता है* परस्पर के ये विवाह-संबंध शनैः शनैः कम होते गए और फिर अपने अपने वर्षों में होने लगे। हमारे निर्दिष्ट काल के पीछे यह प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते केवल अपनी उपजातियों तक ही परिमित रह गई। आज की भाँति प्राचीन काल में भिन्न भिन्न वर्गों में साथ खाने पीने का परहेज नहीं था। ब्राह्मण अन्य सब वर्गों के हाथ का भोजन खाते थे जैसा कि व्यास-स्मृति के छूतछात "नापितान्वयमित्रार्द्धसीरिणो दासगोपकाः । शूद्राणामप्यमीषां तु भुक्त्वाऽन्नं नैव दुष्यति' से पता लगता है। वर्तमान भेद-भाव हमारे समय के अंतिम भाग में भी प्रचलित नहीं हुआ था। अलबेख्नी लिखता है कि चारों वर्णवाले इकट्ठे रहते और एक दूसरे के हाथ का खाते पीते थे। संभव है कि यह कथन उत्तरी भारत से संबंध रखता हो। दक्षिणी भारत में शाकाहारियों ने मांसाहारियों के साथ खाना छोड़ दिया था। यह भेद-भाव शनैः शनैः सभी वर्गों में बढ़ता गया। भारतवर्ष ने केवल आध्यात्मिक उन्नति की ओर ही ध्यान नहीं दिया, उसने भौतिक उन्नति की तरफ भी पर्याप्त ध्यान दिया था । प्राचीन भारतीय यदि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ भारतीयों का भौतिक आदि आश्रमों में तपस्या को मुख्य स्थान देते जीवन थे, तो गृहस्थाश्रम में जीवन के सांसारिक प्रानंद भी भोगते थे। संपन्न लोग बड़े बड़े आलीशान मकानों में

  • राजपूताने का इतिहास; जिल्द १, पृष्ठ १४७-४८ ।

+चि० वि० वैद्य, हिस्ट्री श्राफ मीडिएवल इंडिया; जि० १, पृष्ट ६१- ६३, जि० २, पृ० १७८-८२ । + व्यासस्मृति--अध्याय ३, श्लोक ५५ । 8 अलयेरुनीज इंडिया; जिल्द १, पृ० १०१ । ,