पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०३

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१०० मनुस्मृति भापानुवाद परन्ति सर्वा वैदिक्या जुहोति यजतिक्रियाः । अक्षरं दुष्करं ज्ञेयं ब्रह्मचैव प्रजापतिः ॥४॥ बोरम् यह एक अक्षर परब्रह्म का वाचक है और प्राणायाम बड़ा तप है और गायत्री से श्रेष्ठ कोई मन्त्र नही तथा मौन से सत्यमापण श्रेष्ठ है ।।८शा संपूर्ण वेदविहित क्रिया ( यज्ञयागादि) नाशवान है, परन्तु कठिन से जानने योग्य प्रजापति ब्रह्मा का प्रति- पाक ओम् अक्षर अविनाशी है ।।४।। विधियनाजपयज्ञो विशिष्टो दशभिगुणैः । उपांशुः स्याच्छतगुणःसाहस्रो मानसः स्मृतः ||५|| य पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञ समन्विताः । सर्व ते जपयज्ञस्य कला नाईन्ति पोडशीस् ॥८६॥ विधियत (वैश्वदेवादिको ) से जपयज्ञ दशगुण अधिक है और वही यदि दूसरों के श्रवण में न आवे ऐसा जप शत- गुण अधिक कहा है। और (जिल्हा के न हिलने से) केवल मनसे जो जप कियाजावे वहम् गुण अधिक कहा है ।।८५॥ ये जो चार पाकयज्ञ हैं (अर्थान् वैश्वदेव १ वनिकर्म २ नित्यश्राद्ध ३ अतिथि भोजन ४) यन्त्र (पौर्णमासादि) से युक्त ये सब जपयक्ष के पोडश माग को भी नहीं पाते (अर्थात् जपयन सबसे श्रेष्टहै)।।८६।। जप्येनैवतु संसियेद् ब्राह्मणो नात्रसंशयः । कुर्यादन्यन्नवा कुर्यान् मैत्रो बामण उच्यते ।।८७॥ इन्द्रियाणां विचरता विपयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वन्यन्तेव बाजिनाम् ।।८८||