पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०२

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द्वितीयाऽध्याय ९५ महतोप्येनसेो मासात्वचेवाहिविमुच्यते ||७|| एतयर्चा विसंयुक्तः काले च क्रिययास्वया । ब्रह्मक्षत्रियविडयोनिर्गर्हणां यातिसाधुपु ||८०॥ और इस त्रिक (अर्थात् प्रणव, व्याहृति, त्रिपादयुक्तगायत्री) को सहस्रवार प्रामके बाहर ( नदी तीर या अरण्यमे ) एक मास जपने से द्विज महापाप से भी छूट जाता है जैसे सर्प कंचली में । (यह १ प्रायश्चित्त जानो । प्रायश्चित्त से पाप छूटने का एकादशा- ध्याय में व्याख्यान लिखेग) ||९|| इस गायत्री के जप मे रहित और सायंप्रातः स्वक्रिया (अग्निहोत्रादि) से रहित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण सज्जनो मे निन्दा को पाता है ८|| ओङ्कारपृनिकास्तिस्रो महाव्याहृतयो व्ययाः । त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणोमुखम् ॥१॥ यो पीते हन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षापयतन्द्रितः । स ब्रह्म परमम्प्रेति वायुभृतः खमूर्तिमान् ॥८२॥ बोकार से युक्त तीन अविनाशिनी महाव्याहृति और त्रिपा गायत्री को वेद का मुख जानना (वेद के अध्ययन के पूर्व मे पढी जाती है और ब्रह्मा जो परमात्मा, उसका प्राप्ति का हेतु है) ॥८१|| जो पुरुष प्रति दिन आलस्य रहित होकर तीन वर्ष पर्यन्त ओ व्याहृति और गायत्री का जप करता है वह परब्रह्म को प्राप्त होता है। वायुवन् स्वतन्त्रचारी होकर खमूर्तिमान शरीर बन्धनसे रहित हो जाता है ॥२॥ एकाचरं परं ब्रह्म प्राणायामः परंतपः । सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ।।३।।