पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०५

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मनुस्मृति भाषानुवाद इन्द्रियाणां प्रमंगेन देापमच्छत्य संशयम् । सत्रियम्पतु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति ॥१३॥ न जातु कामः कामानासुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवत्व भृय एवाभिवर्धते ॥४॥ इन्द्रियों के विषयों में फ्मने से निसंदेह दोपको प्राप्त होता है और उन्हीं के रोकने से फिर सिद्वि को प्राप्त होता है ।।९३शा विषय भोग की इन्चा विषयों के भाग से कभी शान्त नहीं होती, जैसे घृत में अग्नि ( कभी शांत नहीं होती किन्तु ) अधिक ही बढ़नी है ॥१४॥ यश्चैतान्याप्नुयात्मान्यश्चैतान्केवलारत्यजेत् । प्रापणास्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते ॥६५॥ न तथतानि शक्यन्ते नियन्तुमसेवया । विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यश- H९६|| जा इन मन विषयों को भोगे पार जो इनको केवल छोड़ देवे, (उन दोनो मे ) सपूर्ण कामनाओं का भोगने से छोड़ना पढ़ कर ॥५॥ यं विषयासक्त इन्द्रिय विपयों के सेवन विना भी उस प्रकार नहीं जीती जा सकती जैसे कि सर्वदा (विपयों के दोष के) ज्ञान से ॥१६॥ वेदात्यागश्च यज्ञारच नियनाश्च तपांसिच । न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धि गच्छन्ति कहिचित् ॥१७॥ श्रुत्वा स्पृष्ट्वाच दृष्टवाच भुक्त्वा प्रात्वाच योनरः । न हम्पति ग्लायति वा सविज्ञेया जितेन्द्रिय, Heall