पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१०६

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१ द्वितीयाध्याय १०३ वदाध्ययन, दान. गा, नियम और तप, ये दुष्ट भाव वाले को कभी सिद्ध नदी होने ॥७॥ जिम्म पुरूप का (निन्दा या स्तुति के) सुनने में और (कमल था की वन्न के) स्पर्श फरनेमे तथा (मुन्दर या असुन्दर वस्तु के ) देवन मे और (अन्छे भोजन या मामान्य) भोजन से और (नान्य या दुर्गन्ध) पार्थ के घने में हर्ष विपाद ना उसका जिनेन्द्रिय जानना 11 इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यो क्षतीन्द्रियम् । तेनास्य क्षति प्रजा हनंपात्रादिवोदकम् ||६९ll वशे कृत्येन्द्रियग्राम संयम्य च मनरनथा । सर्वान् साधयेदनिधिएवन्यागतस्तनुम् ॥१.०|| मपूर्ण इन्द्रियों में यदि का भी इन्द्रिय का विषय मे मुकाब हो नी तत्वज्ञानी की बुद्धि उम में नष्ट होनी है । जैम अति-मशक (वा कुटे पात्र) से (सा) पानी ||९|| इन्द्रियों को गणों के म्वाधीन करके और मन का भी मंयम करके युक्ति में शरीर का पीड़ा न देता हुआ सम्पूर्ण प्रों (पुरुषार्थ चतुष्टय) को साचे ॥१०॥ पूर्व संध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात् । पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात् ।।१०११॥ पूर्व संध्यां जपं स्तिष्ठन्ने शमेना व्यपोहति । पश्चिमांतु समासीनो मलहन्ति दिवाकृतम् ॥१०२॥ प्रातःकाल की सन्ध्या का गायत्री का जप करता हुआ सूर्य- दर्शन होने तक स्थित होकर और सायंकाल की सन्ध्या का नक्षत्र