पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८३

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१८० । मनुस्मृति भाषानुवार श्राद्ध के प्रथम दिन वा उसी दिन यथोक्ताण वाले और ग्राम को सत्कारपूर्वक तीन या न्यून को निमन्त्रण देवे ॥१८७॥ श्राद्ध में निमन्त्रिन बामण श्राद्ध के दिन नियम वाला होने और वेदाध्ययन न करे। ऐसे ही श्राद्ध करने वाला भी ॥१८॥ पितर उन निम- न्त्रित मागणों के पास पाते हैं और वायु तुल्य उनके पीछे चलते हूँ और बैंठौके पास बैठे रहते है ॥१८॥ श्रेष्ठ ब्राह्मण इव्य कन्य में यथाशास्त्र निमन्त्रित किया हुआ निमन्त्रण स्वीकार करके फिर किसी प्रकार भाजन न कर तो उस पाप से जन्मान्तर में सूकर होवेगा ।।१९०।। जा बामण श्राद्ध में निमन्त्रित हुआ शूद्रा स्त्री के माथ मैथुन करे वह श्राद्ध करने वाले के सम्पूर्ण पाप को पाना है ।।१९१।। क्रोध रहित भीतर बाहर से पवित्र निरन्तर जितेन्द्रिय, इथियार छाई हुवे और दयादि गुणों से युक्त पूर्व देवता पितर है ।।१९।। इन सब पितरो की जिससे उत्पत्ति है और जो पितर जिन नियमो से पृजित होते हैं उन नियमों का सम्पूर्णतया सुनी ॥१९३।। स्वायम्भुव मनु के पुत्र मरीच्यादि हैं और उनके पुत्रों का पितृगण कहा है ॥१९४।" "विराटमुता सामसन साध्यानां पितर. स्मृता । अग्निप्वाताच देवानां मारीचा लोकवित्रता ॥१९५|| दैत्यदानवयक्षाणां गन्ध- रिंगरक्षसाम । सुपर्णकिन्नगपांच स्मृता बर्हिपदोविजा' ||१९६|| सोमपा नाम विप्राणां क्षत्रियाणां हविभुज । वैश्यानामाज्यपा नाम शूदाणां तु सुकलिन ॥१९॥ सोमपास्तु कवे. पुत्रा हविष्मन्तोनिरस्सुता' । पुलस्त्यस्याज्यपा पुत्रा वसिष्ठस्य सुका- लिन' ||१९८॥ अग्निदग्धानग्निदग्धान्काव्यान्वहिपदस्तथा। अग्निष्यातांश्चसाम्यांच विप्राणामेव निर्दिशेत् ॥१९९|| य एते तु गणा मुख्या. पितॄणां परिकीर्चिता । तेपासपीह विज्ञयं पुत्र-