पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८५

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मनुस्मृति भाषानुवाद वसिष्ठ के सुकलानि. ग्रे पिता इन ऋषियों से उत्पन्न हुने ॥१९८।। अग्निदग्ध अनग्निदग्ध काव्य वर्हिपद और अग्निप्यात तया सौम्या का ब्राह्मणों के पितर कहा है ।।१९९॥ ये इतने तो पितरीके गण मुख्य कहे हैं. परन्तु इभ जगत् में उनके पुरा पीर अनन्त जानने ।।२८०॥ ऋपियों से पितर हवे और पितरो से देवता तथा मनुष्य हुवे और देवती से ये सम्पूर्ण स्थावर जनम क्रम से हुवे |२०|| चांदी के पात्रो से या चांग लगे पात्रों से पितरों का श्रद्धा करके दिया पानी भी अक्षय सुख का हेतु होता है ।।२०२॥ (इन. इलाकों में पाया जाता है कि मरे हुवे पिता आदि पितर नहीं है) द्विजातियों को देव कार्य से पितृ कार्य अधिक कहा है । क्योकि कार्य पितृकार्य का पूर्वाह्न तर्पण सुना है ॥२०॥ पितरा के रक्षा करने वाले देवताओं का श्राद में प्रथम स्थापन करे क्योंकि रक्षक रहित श्राद्ध को राक्षस नष्ट कर देते हैं ॥२०४ा श्राद्ध में प्रारम्भ और ममाप्ति दानो देवतापूर्वक करे, पित्रादि पूर्वक न करे। पित्रादिपूर्वक करने वाला शीघ्र वंशमहित नष्ट हो जाता है ।२०५|| एकान्त और पवित्र देश की गोवर से लीपे और दक्षिण की ओर का नीची वेदी प्रयत्न से बनावे ।।२०६|| खुली जगह और पवित्र देश या नदी के तौर पर या निर्जन देश में श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न होते हैं |२०|| उस देश में कुश सहित अन्छे प्रकार अलग २ वित्राय हुवे आसनी पर लान पाचमन किये हुवे निम- त्रित ब्राह्मणों को चेतावे ॥२०॥ अनिन्दित नागयों को श्रासन २ बैठा कर अच्छे सुगन्धित गन्धमाल्यों स दवपूर्वक पूजे (अर्थात प्रथम देवस्थान के ब्रामणों को पूज कर पश्चात् पितम्या- नीय ब्राह्मणों की पूजा करें) ||२०|| उन बामणो का पवित्री और तिलों से युक्त अयॊदक लाकर ब्राह्मणों के साथ श्राद्ध करने वाला ब्राह्मण अग्नि में होम करे ॥२१०॥