२२८ मनुस्मृति भापानुवाद संमार में काई फर्म नहीं है जैसा (मनुष्य की आयु घटाने वाला) दूसरे की स्त्री का सेवन है ॥१३४॥ क्षत्रियं चैव सर्व च ब्रामणं च बहुश्रुतम् । नावमन्येत वैभूष्णुः कृपानपि कदाचन ॥१३५॥ एतत्त्रयं हि पुरुष निर्दहेदवमानितम् । तस्मादेतत्त्रयं नित्य नावमन्येत बुद्धिमान् ॥१३६।। (धर्मादि से ) वृद्धि चाहने वाला क्षत्रिय, सर्प और बहुश्रुत बाह्मण दुचले भी हैं। तो मी इन का अपमान न करे ||१३५॥ ये तीन अपमान करने से अपमान करने वाले को भस्म कर देते हैं। इस से बुद्धिमान् इन का अपमान न करे ॥१३॥ नात्मानमरमन्येत पूर्वाभिरसमद्धिभिः । श्रामत्याः श्रियमन्पिच्छेन्नैना मन्येत दुर्लभाम् ।१३७ सत्यं न यात्प्रियं व यान न याद सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं न यादेश धर्मः सनातनः ॥१३८।। यल करने से द्रव्य न मिले तो भी अपने को प्रभागी कह कर अपना अपमान न करे, किन्तु मरने तक सम्पत्ति के लिये थल करे इस को दुर्लभ न जाने ॥१३७॥ सच बोले, प्रिय योले और जो प्रिय न हो ऐसा न वोले (मौन रहे) और असत्य प्रिय भी न बोले , यह सनातनधर्म है ॥१३८।। भद्र भद्रामिति व याद्रमित्येव वा वदेत् । शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह ॥१३॥ नातिकल्पं नातिसायं नातिमध्यदिने स्थिते ।