पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२३२

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चतुर्थाऽध्याय २२९ नाशाते न समं गच्छन्नेको न वृपनैः सह ।१४० भद्र भा (अच्छा बहुत अच्छा ) कहे या केवल "अच्छा" ही कहे, किन्तु निष्प्रयोजन वैर वा झगड़ा किसीसे न करे ।।१३९॥ सवेरे उपः काल और प्रदेोष समय में तथा दोपहर दिन का और अनजान के साथ तथा अकेला और शूद्रों के साथ मार्ग नचले ॥१४॥ हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गाविद्याहीनावोषिकान् । रूपन्धविहानाय जातिहीनांश्च नाक्षिपेत् ॥१४॥ न स्पृरोस्पाणि नाच्छिम्मको विप्रो गाबामणानलान् । नचापिपश्वेदशुचिः मुस्था ज्योतिर्गमान्द्रिवि ॥१४२।। अङ्गहीन, अधिक अद्र पाले. मूर्ख, वृद्ध, कुरूप तथा द्रव्य हीन और जाति से हीन को नाना न दे ॥१४॥ भोजन करके मूठे हाथों से इन्द्रियों, ब्राह्मणो और अग्नि का म्पर्श न करें। याधिरहित पुरुष अपवित्र हुवा आकाशमे सूर्यादिको न देखे।१४। स्पृष्ट्वैतानशुचिनित्यमद्भिः प्राणानुपस्पृशेन् । गात्राणि चैत्रसर्वाणि नामि पाणितलेन तु ॥१४३॥ अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्तः । गेमाणि च रहस्यानि सर्वाण्येव विवर्जयेत् ॥१४४ यदि अपवित्र हुवा पुरुष भूज से इन इन्द्रियादि का स्पर्श करले तो आचमन कर हाथ से जल लेकर चक्षुरादि का स्पर्श करे और सम्पूर्णगात्र तथा नामि को स्पर्श (करना रूप प्रायश्चित्त) करे ॥१४॥ स्वस्थ मनुष्य अपने इन्द्रियों और सब गुप्त वालों