पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थाऽध्याय [चिकित्सककृतघ्नांनां शिल्पकर्तुश्च वाघुपैः। परढस्य कुलटायाश्च उद्यतामपि वर्जयेन् ।। न विद्यमानमेवैवं प्रतिमाह विजानता। विकल्प्याविद्यमाने तुधर्महीन. प्रकीर्तितः ।। राज्यां गृहान्कुशान्नान्धानप' पुष्प मणीन्दधि । धानामल्यान् पयोमांसं शाकं चैव न निर्गुदम् ।।२५०।।' "उसके किये श्राद्ध मे पितर पन्द्ररह वर्ष भोजन नहीं करने और अग्नि उसके हवि को ग्रहण नहीं करता जो कि अयाचित मिक्षा का अपमान करता है ।।२४ [वैध कृतघ्न शिल्ली व्याजजीची, नपु'मक और वेश्ण का प्रतिग्रह विना मागे मिलने पर भी न ले । यह प्रनित्रह जान बूझ कर अपने पाम होते हुबे न ले परन्तु न होते हुवे लेने में विकल्प करने से धर्महीन हो जाता है। इन दोनो श्लोकों पर मवसे पिछले रामचन्द्र टीकाकार की टीका है। मेधातिथि आदि अन्य ५ की नहीं। इससे नूतनकाल में ही उनका मिलाया जाना पाया जाता है । पिछले और अगले श्लोकों से सम्बन्ध ऐसा मिलाया है कि कोई जानने न पावे । इन दो में से पहला श्लोक ११ पुस्तकों में पाया जाना है और दो पुस्तकों में कुर २ पाठान्तर से पाया जाता है तथा दूसरा श्लोक केवल एक पुस्तक में ही मिलता है] ॥२४॥ "शल्या. घर, कुशा गन्ध, जल पुप्प, मणि, दधि, धाना, मम्य, दूध, मांस और शाक इनका प्रत्याख्यान न करे (काई देवे वो न लौटावे) ॥२५॥ 'शुरुन्मत्यांश्योब्जिहीपनर्चिष्यन्देवतातिथीन् । सर्वतः प्रतिहीयान्न तु तृप्येत्स्वयं तत. २५१|| गुरुपुत्वभ्यतीतेपु विनावातगृह बसन् ।