पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६२

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चतुर्थाऽध्याय न लेने को उत्तम लिखा है कि (प्रापणासर्वकामानां परित्यागो- विशिष्यते) वा (प्रतिग्रह. प्रत्यवर) दान लेना हलका तुच्छ काम है तो न लेने वाले को ऐसा भ्रष्ट वताना कि उसका हन्य अग्नि भी नही ग्रहण करता कैसे अन्धेर की बात है । २५० में पाठभेट भी हैं। ३ पुस्तकों मे (मणीन्-फलम् ) पाठ है और इस श्लोक बनाने वाले का जी मछली को ऐमा ललच गया कि प्रक्षिम श्लोकों में ही अध्याय ५ श्लोक १५ मे मछली को खाना सर्व- भक्षीपना होने से वय॑ धतावेंगे उसे भी भूल गया । वा इन प्रक्षिप्तो का कर्ता भी एक पुरुष नहीं किन्तु अनेकों ने भिन्न २ समया में ये श्लोक मिलाये हैं और चौर को सुव भी नहीं रहती आगे पीछे क्या है। २५१ में सत्र प्रतितह माता पिता आदि तथा देवता अतिथि की पूजार्थ प्राह्य कर दिया। भला जो अपना पेट नहीं भर सकता न अपने माता पिता का, उसके अतिथि क्यो पाने लगा है स्नातक विप्र की वृत्तियों का वर्णन करते हुवे खेती वाणिज्यादि जब उसका कर्म ही नहीं तव २५३ वे का यह कहना कि आधा माझा ग्वेती व्यापाराहि मे जिनका हो इत्यादि शूहों “का अन्न भी मक्ष्य है प्रसङ्गत है। खेती वैश्य कर्म है शूहकर्म नहीं । (२४९ के आगे जो दो श्लोक सब पुस्तका में भी नहीं मिलते वे भी अपने साथियों के प्रतिप्त होने के सशत्र का दृढ करते हैं और २४६ का २५४ से मम्वन्ध भी नहीं बिगडता । इत्यादि कारणों से हमारी सम्मति मे २४७ से २५३ तक ७ श्लोक प्रक्षिम है) ॥२५॥ यादृशोऽस्य भवेदात्मा यादृशं च चिकीर्पितम् । यथा चोपचरेदेनं तथात्मानं निवेदयेत् ॥२५४।। जैसा इसकाआत्मा हो और इस को करना हो और जैसे इसकी कोई सेवा कर वैसा ही अपने को निवेदन करे ।।२५४।। ,