पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२६३

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२६० मनुस्मृति भाषानुवाद योभन्यथा सन्तमात्मानमन्यथासत्सु भापते । स पापकृत्तमो लोकेस्तेन आत्मापहारका ॥२५॥ वाच्यानियताः सर्वे वाङ्मुलावाग्विनिःसृताः । तो तु यास्तेनवार्च स सनस्तेयकन्नरः ॥२५६।। जो अपने को और कुछ बताता है और है कुछ और वह लोगो मे बड़ा पाप करने वाला आत्मा का चुराने वाला चौर है २५५|| सम्पूर्ण अर्थवाणी में बन्धे हैं और सवका मूल वाणी ही है और सब वाणी से निकले हैं उस वाणी को जो चुरावे वह मनुष्य सम्पूर्ण चोरियो का करने वाला है ।।२५६।। महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि । पुत्रे सर्व समासज्य बसेन्मध्यस्थमाश्रितः ॥२५७|| एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्त हितमात्मनः । एकाकी चिन्तयानाहि परंश्रेयाधिगच्छति ॥२५८|| ऋपि पितर देवता इनका ऋण देकर और यथाविधि पुत्र को कुटुम्ब भार सौंप कर समदर्शी होकर रहे ॥२५ना निर्जन स्थान में अकेला आत्मा का हित चिन्तन करे, क्योंकि अकेला ध्यान करता हुया परम श्रेय (माक्ष) पाता है ।।२५८।। एपोदितागृहस्थस्य वृत्तिवित्रस्य शाश्वती । स्नातकव्रतकल्पश्च सचबुद्धिकर शुभः ॥२५॥ अनेन चिनो वृत्चेन वर्तयन्वेदशास्त्रविन् । व्यपेतकल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते ॥२६०||