पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१३

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मनुस्मृतिभाषानुवाद जिसमे पापरोग उपशादि प्रत्यक्ष होते देखे जाते हैं। १६२ में अन्यसे उत्पन्न सन्तानको सन्तान न मानना व्यभिचार की सन्तान के विषयमे है । नियमपूर्वक विधिवत् नियुक्तोकी सन्तति तो संतति ही है। १६८ मे स्त्री मरने पर पुनर्विवाह विधान आवश्यक नहीं है किन्तु उसका भाव यह है कि यदि पुग्य अक्षत वीर्य होने से पुनर्विवाह का अधिकारी हो और विवाह करना चाहे तो कर सकता है, परन्तु फिरसे अग्निहोत्र लेना होगा। इसमे ऊपर लिखे अनुसार दो श्लोक इस प्रकरण में ऐसे भी हैं जो सव पुस्तकों में नहीं पाये जाते और यह भी संशय है कि पुनरुक्कादि उक्त दोषो वाले श्लोक भी न्नियो की अत्यन्त परतन्त्रता के पक्षपाती लोगों ने कदाचित वढाय हो क्योकि १५९६ १६० श्लोको मे तो बहुत ही नवीनता मालकवी है) ॥१६॥ इति मानवे धर्मशास्त्र ( मृगुप्रोक्तायां संहितायां) पंचमोऽध्यायः ॥४॥ . इति श्री तुलसीरामस्वामिविरचिते मनुस्मृतिभापानुवावे पंचमोऽध्यायः ॥४॥