पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/३१४

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ओश्म अथ षष्ठोऽध्यायः एनं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नानका द्विजः । बने वसेत्त नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः ॥१॥ स्नातक द्विज ऐसे यथाविधि गृहस्थाश्रम में रह कर नियम पूर्वक जितेन्द्रियता से वन में निवास करे ।। (एक पुस्तक और रामचन्द्र की टीका में इस से आगे यह श्लोक अधिक है - [श्रतः परं प्रयच्यामि धर्म बैखानसाश्रमम् । चन्यभूलफलानां च विधि ग्रहणमोक्षणे ।। इस से आगे वानप्रस्थाश्नमी का धर्म और वन के मूल तय फलों के लेने और त्यागने का विधान कहूंगा) ||१|| गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपालतमात्मनः । अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रये ॥२॥ गृहस्थ जब अपने देह की त्वचा को ढीली. शिर के बाल श्वेत और सन्तान के भी सन्तान को देखले तव धनका आश्रय करोRI संत्य ज्यग्राम्यमाहारं सर्व चैत्रपरिच्छहम् । पुत्रेषु भाया निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैत्र वा ॥३॥ अग्निहोत्रं समादाय गृह्य भाग्नि परिच्छदम् । ग्रामाहरण्यं निःसृत्य निवसनियतेन्द्रियः ॥४॥