मनुस्मृति ०१२ भाषानुवाद पराककृच्छ, चान्द्रायण, २११-२१६ प्रतियों को किनर नियमों से रहना चाहिये ता की बडाई २२०-२४४ वेदाभ्यास, जप, ज्ञानकी बड़ाई, 'रहस्यायश्चित्त' २४५-२९२ नरत्समदीयादि सूकजपोंके विधान फलप्रयोगादि २५३-२५६ द्वादशाऽध्याय में- 'भ्रगुसम्बाद' प्रक्षित कर्मका प्रवर्शक मन है, मन बचन देह के कार्य, नीनों का भोग, साधन, फल, योनि, सयमी को सिद्धि, क्षेत्रज्ञ और भूतात्मा, जीव. शर्गगत्पत्ति के वर्णन यमयातनाभोग, फिर मात्राओं में लय. उन्नति, स्वर्गप्राप्ति, नरकमाप्ति, धर्म में ही मन लगाना, सत्यादि ३ गुण, सब भूतों का गुणों से व्यास होना १७-२६ ३ गुणों को पहचान, तीनो गुणों की नीन तीन-गति२७-१२ किस किस कर्म से क्या २ योनि मिलती है, उनके अनेक दुब वेदाभ्यासादि नैश्यस कर्मों का वर्णन, प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग वेद चक्षु है, वेद विरुद्ध स्मृति अमान्य तथा नश्वर है सब कुछ चातुर्वयादि घेद से प्रसिद्ध हुआ है, वेद सर्वाधार है सब अधिकार वेदश को योग्य हैं, वेदज्ञ दुष्ट कर्म से बनता है, वेदज्ञ की मुक्ति, काम का अपेक्षा उच्च नोचना का तारतम्य ६७-१०३ तप और विद्या का फल, प्रत्यक्ष अनुमान और शास्त्र को जानना उचित है, जिन धर्मोका शास्त्रो में वर्णन