पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४२९

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४२६ मनुस्मृति भाषानुपाट नियमित हुवा ही फल पावे, किन्तु नियत देश वा काल को उल्ल- पित करने वाले फल को नहीं प्राप्त हो (मियाद गुजरने पर हकदार न रहे) ॥१५६॥ समुद्रयानकुशला देशकालार्थ दर्शिनः । स्थापयन्ति तु या वृद्धि सा तत्राधिगमं प्रति ॥१५७॥ यो यस्य प्रतिभूस्तिष्ठेदर्शनायेह मानवः । श्रदर्शयन् स तं तस्य प्रयच्छेत्स्वधनादृणम् ॥१५८।। समुद्रपथ के यान में कुशल, और देश काल अर्थ के जानने वाले (अर्थात् इतनी दूर इतने दिन तक, इस काम के करने मे यह लाम होता है इसको जानने वाले महाजन) जिस वृद्धि का स्थापन करते हैं वही उसमे प्रमाण है ।।१५७। जो मनुष्य जिस को हाजिर करने के लिये प्रतिमू (जामिन) हो वह उसको सामने न करे तो अपने पास से उसका ऋण दे ॥१५८।। प्रातिभाव्यं वृषादानमाक्षिकं सौरिकं च यत् । दण्डशुल्कायशेपं च न पुत्रो दातुमर्हति ॥१५६।। दर्शनप्रातिभाष्ये तु विधि: स्यात्पूर्णचोदितः । दानप्रतिमुवि प्रते दायादानपि दापयेत् ॥१६०॥ प्रतिभू होने (जमानत) का धन और पृथा दान तथा जुवे का रुपया मद्य का रुपया और दण्ड शुल्क का शेष, (ये सब पिता के मरने पर उसके बदले) पुत्र देने योग्य नहीं है ॥१५९।। सामने कर देने के प्रतिभाव्य (जमानत) में ही पूर्वोक्त विधि है (अर्थात् पिता की जमानत पिता ही देवे) और धन देने का प्रतिमू (जामिन) मर जावे तो उस के वारिसो से भी दिलावे ॥१६०।।