पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३

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मनुस्मृति भापानुवाद ब्राह्मऋतयुगं प्रोक्तं त्रेता तु क्षत्रियं युगम् । वैश्याद्वापरमित्याहुः शूद्रः कलियुगः स्मृतः ॥ ११९७ से आगे दो पुस्तकों मे यह श्लोक अधिक है कि. तेपां न पूजनीयोऽन्यस्त्रिषु लोकेषु विद्यते । तपाविधाविशेषेण पूजयन्ति परस्परम् ।। तथा अन्य दो पुस्तकों मे आधा श्लोक और अधिक है कि' ब्रह्मवियद्यः परं भूतं न किञ्चिदिह विद्यते ।। १।१०५ से आगे दो पुस्तकों और रामचन्द्र कृत टीका मे यह श्लोक अधिक है.- यथा त्रिवेदाध्ययनं धर्मशास्त्रमिदं तथा । अध्येतन्यं ब्राह्मणेन नियतं स्वर्गमिच्छता || २। १५ से आगे भी ३ पुस्तकों में ये दो श्लोक अधिक हैं। असद्धृत्तस्तु कामेषु कामापहतचेतनः । नाक समवाप्नोति तत्फलं न समश्नुते ॥१॥ तस्माच्छ निस्मृतिप्रोक्तं यथाषिध्यु- पपदितम् । काम्यं कर्मेह भवति श्रेयसे न विपर्ययः ॥२॥ २ । १५ से आगे भी ३ पुस्तकों में दो श्लोक अधिक है जो हमने उसी स्थान पर छापे हैं ।।२।३१ के उत्तराधका ३ पुस्तकों में- शूद्रस्य प्रध्यसंप्तम् पाठ भेद है ॥ २ । ३२ में भी एक पुस्तक में - राज्ञोरक्षासमन्वितम् - राज्ञोवमसमन्वितम् । पाठ भेद है ॥ २ ॥५१ के ९ यावदन्नं = यावदर्थ पाठों में मेधातिथि के भाष्यानुसार भेद है ।। २।६७ वें प्रतिप्त श्लोक के पाठ में भी बड़ा अन्तर है कि एक पुस्तक में-