पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७

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मनुस्मृति मापानुवार स तैः पृष्टस्तथा मम्यगमितीजा महात्मभिः । प्रत्युवाचार्य ताम् मान्महाश्रयतामिति ।४।। प्रासीदिन नमोभतभप्रजातमनत्रणम् । अप्रतय॑मविजयं प्रमुप्नमिय मनः ॥ ५ ॥ अर्थ-जब उन मागमायों ने महा-मा मनु मेम प्रकार प्रश्न किया तब नी ने इन सब मारियांका मार कर कमा कि श्रवण कीजिये यह विश्व (गनाप्रनगमान ) अन्धारयुक्त और लक्षणों से रहित, संत के अयोग्य नया तर्फ द्वाग और स्वरूपसे जाननेक अयोग्य मय पोरन निहाकी मी दगामया ॥२॥ (यहां यह प्रश्न होता है कि पियान नी चम पृत्रा मनुनी सष्टिको उत्पत्ति का वर्णन क्यों करने लगी मनु मन टीकाकारो (१ मेधाविधि २ सर्वज्ञनारायण ३ कुलूक रामानन्द ५ नन्दन) ने एक छठे रामचन्द्र टीकारका क्षेळकर, यह प्रश्न उठाया है और थोडेसे भावमे मंद करते हुवे प्राय मयका तात्पर्य उजरमं यह है कि मष्टिका वर्णन करते हुवे चारों वर्गोंकि धर्म मा वर्णन करनेके लिये प्रथम रष्टिकी उत्पत्तिसे श्रारम्भ करना मानोपागधर्म का वर्णन कहा जा सकता है। इसलिये और बमजानकी सब धर्मा में उत्तमता होनेस मनुजी ने परमात्मा से जगन् की उम्पत्ति दिग्वाते हुवे धर्मोपदेशका प्रारम्भ किया परन्तु दूसरे रंलाक के भागे अन्य दो श्लाक भी चार प्राचीन लिखित पुस्तकोंमें देखे जाते हैं और नन्दन तथा रामचन्द्रने इन पर टीकाभी की है। वे ये हैं.- [जरायुजाण्डजानां च तथा मंस्वेटजाहिदाम् । भृतग्रामस्य सर्वस्य प्रभवं प्रलयं तथा ॥१॥