पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रम श्री परमात्मने नमः अथ मनुस्मृति-आषानुवादः प्रणम्य जगदाधार वाफ्पति परमेश्वरम् । क्रियते मानवी टीका तुलसोरामशर्मणा (स्वामिना)। मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः । प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन् ॥१॥ अर्थ- महर्षि लोग एकान्त में विराजमान मनुजी के निकट जाकर (उनका) यथोचित पूजन कर यह वचन बोले किन॥१॥ भगवन्सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः । अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि ॥ २ ॥ त्वमेका बस्य सर्गस्य विधानस्य स्वयंभुवः। अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो ॥३॥ अर्थ-महाराज : संपूर्ण वर्षों और वर्णसङ्करों के धर्मों का यथावत् क्रम से हम लोगोको उपदेश करनेमे आप समर्थ है ।।२।। क्योंकि संपूर्ण धेद (ऋग्यजु साम अथव) के कार्यों ज्योतिष्टोमाद्धि यज्ञ और नित्यकर्म सन्ध्यावन्दनादि के यथार्थ तात्पर्य के जानने चाले आप एकही हैं जो वेदका अचिन्त्य, अप्रमेय, अनादि-पर- मात्मा का विधान (कानून) है ॥३॥