पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अष्टमाऽध्याय ४६७ अग्नि से स्थानादि जलाने वाला, विप देने वाला, (मारने को) शस्त्र हाथ में लिये हुये धन छीनने वाला. खेत और स्त्री का हरने वाला ये छ. आततायी है। इसमें छ. को आततायी कहने से जान पड़ता है कि वस ये ही आततायी हैं, विशेप नहीं । परन्तु किसी ने दो नीचे लिखे श्लोक पातयायी के लक्षण के और भी धना दिये हैं जिन में से पहला ३ और दूसरा २ पुस्तकों में पाया उिद्यतासिविषाग्निभ्यां शापाद्यतकरस्तथा । आपत्रणेन हन्ता च पिशुनश्चापि राजनि ॥ भारियापहारी च नान्वेपणतत्पर । एवमाद्यान्विजानीयात्सवनि वाततायिनः ।।] अर्थात्-प्रहारार्थ खझ उठाने वाला. विप और अग्निसे मारने वाला शाप के लिये हाथ उटाता हुवा, अथवेदक मन्त्र से मारने वाला, राजा से मूठी चुगली करने वाला । स्त्री धन का छीननं वाला छिद्र हुँढने में तत्पर इत्यादि सभी आततायो समझने चाहिये) ॥३५॥ नाततायिवधे देोपो हन्तुर्भवति कथन । प्रकाशं वा प्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥३५१।। परदाराभिमणेष प्रवृत्तानन्महीपतिः । उद्धजनकरैर्दण्डैश्छिन्नयिता प्रवासयेत् ॥३५२॥ लोगों के सामने वा एकान्त मे मारने को तैयार हुवे के मारने मे मारन वाले को कुछ भी दोप नहीं होता क्योंकि वह क्रोध उस कोध को प्राप्त होता है ।।३५१।। परस्त्रीसंभोग मे प्रवृत्त पुरुषो को E