पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४६९

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मनुस्मृति भाषानुवाद अधिक पापकारी जाने ।।३४५|| साहस करने वाले को जो राजा क्षमा करता है वह शीन विनाश और लोगों में द्वष को प्राप्त होता है।॥३४॥ न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वाधनागमात् । समुत्सृजेत्साहसिकान्सर्वभूतभयावहान् ॥३४७॥ ॥ शस्त्र द्विजातिमिग्राह्य धर्मो यत्रोपरुध्यते । द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ॥३४॥ आत्मनच परित्राणे दक्षिणानां च सगरे । स्त्रीविनाम्युपपत्तौ च नन्धर्मेण न दुष्यति ॥३४६।। गुरु वा बालवृद्धौ वा ब्राक्षणं वा बहुश्रुतम् आततायिनमायान्तं हन्या देवा विचारयन् ॥३५०॥ मित्र के कारण वा बहुत धन की प्राप्ति से भी राजा सब लोगों को भय देने वाले साहसी मनुष्यों को न छोडे ॥३४७॥ ब्राह्मणादि तीन वणों को शस्त्र प्रहण करना चाहिये. जिस समय कि वर्णा- अमियो का धर्म रोका जाता हो और त्रैवर्णिकों के मध्य विप्लव (बल) मे ॥३४ा और अपनी रक्षाके लिये, दक्षिणा के छीनने पर स्त्रियो और ब्राह्मणो की विपत्ति में धर्मानुसार शत्रुओं की हिंसा करने वाला दोष भागी नहीं होता ना३४९॥ गुरु या बालक वा वृद्ध व बहुश्रुत प्राह्मण इन में कोई हो जो आततायी होकर भावे, उसको राजा बिना विचारे (शीघ) मारे । (२५० से आगे दो पुस्तको मे यह श्लोक अधिक पाया जाता है [अग्निदोगरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव पडेते ह्याततायिनः ।।