पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४९

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मनुस्मृति मापानुन सोऽभिध्याय शरीरात्स्चारिससृविविधाः प्रजाः । अप एव सस दो तासु बीजमवासृजन् ।।८।। तदएडममबभ सहस्रांशुसमप्रभम् । तस्मिञनेम्वयं ब्रह्मा सर्पलाकापितामहः ||६|| अर्थ-उस (स्वस्वामिभावसम्बन्ध से मालिक और मिलकिर के लिहाज से) अपने शरीर मे नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न का की इच्छा करने वालन ब्यान करके प्रथम अमत्वही उत्पन्न किर उसमे बीजका आरोपित किया। (यहां शरीर शब्द से उपाद कारण का प्रहण है । परमेश्वर इसका अधिष्ठाता स्वा मालिक] है. इसलिये उसे "परमेश्वर का" कहा गया है)। अप शब्द का अर्थ असा है, जल नहीं । वास्तव पञ्चमूतों में से एक भूत जल का अर्थ लेना यहां सङ्गत भी न किन्तु प्रकृति का जव परमाम्मा कार्योन्मुख करके सृष्टि का उत्प करना प्रारम्भ करता है तब जो तस्त्र प्रकृति का सबसे पहला का वा सबसे पहला परिणाम होता है, उसको 'अप्तत्व कहा समझ चाहिये, क्योंकि इसके आगे १११ मे- "यतत्कारणमव्यक्तं नित्यं मत्सदात्मकम् । इस श्लोक ने अव्यक्त (प्रति) का वरन प्रकरण में है। इस का ११८ मे शरीर कहा है। शरीर से अप का उत्पन्न करना क गया है। अप वही वन्तु जान पड़ती है जिसका सांख्य मत में- प्रकृतैर्महान्

  • प्रधानमेव तस्येद शरीरम-प्रकृतिही उस पुरुषका शरीर है

मेधाविथि टीकाकार। "