पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५०

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प्रथमाध्याय कह कर मह तत्व संज्ञा दी है। यदि हम अप का अर्थ जल मानले तो यह किसी शास्त्र या दर्शनसे अनुमोदित नहीं होसकता। ऐतरेय आरण्यक पृ० ११२ में सायणाचार्य कहते हैं कि- "अपशब्देन पञ्चभूतान्युपलक्ष्यन्ते," (तथा)- "अपशब्देन सर्वेषां देहबीजभूतानां सूक्ष्मभूतानां ग्रहणम्" । यह सापणीय वा माधवीय शङ्करदिग्विजय के सर्ग ७ श्लोक ७ की टीका टिप्पणी में कह गया है । इन दोनो वाक्यो का अर्थ यही है कि अप शब्द से देह के बीजभूत सर सूक्ष्म भूत समझने चाहिय ।। ऋग्वेद १० ॥ १२१ । ७ में जो मन्त्र है कि- अह यद् वहीनिसमायगर्भ दबाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम् ।। इममे अप शन्न के विशेपण-माम दधानाः, अग्नि जनयन्ती.. दक्ष दधाना, यह जनयन्ती आये हैं सा केवल जल-साधारण गर्भ का धारण, अग्नि का उत्पादन बलका धारण यज्ञका उत्पादन नहीं सम्भव होता किन्तु प्रकृतिकी पहली विकृतिमे ही घट सकता है और यही कारण संस्कृतमे अपशब्दक स्त्रीलिङ्ग होनेका भी जान पड़ता है । पीछे 'अप के जलतुल्य छय (रफीक ) पदार्य होने से उसका नाम जल पड़ गया और लिङ्ग वही स्त्रीलिङ्ग प्रयुक्त होता रहा जान पड़ता है। यही मन्त्र यजुर्वेद २७ । २५ में भी पाया है जिसका भाष्य करते हुवे महीधर ने शतपथ ११ । ११६ । १ . का प्रमाण दिया है कि- आपा ह वा इदमग्र मलिलमेवास ।