पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भापानुवाद व्यवहारोमिथस्तेषां विवाह. सहसः सह ॥५३॥ अन्नमेपां पराधीनं देयं स्याद् भिन्नभाजने । रात्रौ न विचरेयुस्ते प्रामेषु नगरेषु च १५४ धर्मानुष्ठान के समय में इन(चण्डाल श्वपाक इत्यादि) के साथ देखना बोलना इत्यादि व्यवहार न करे । उनका व्यवहार और विवाह बराबर वालो के साथ हो ||५इनको खपर आदि में रखकर अलग से पराधीन अन्न देना चाहिये और वे रातको प्रामो और नगरों मे न घूमे ॥५४॥ दिवाचरेयुः कार्यार्थं चिन्हिताराजशासनः । अवान्धर्व श चैव निहरेयरिति स्थितिः ॥५५॥ घच्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाङ्गया । वध्यत्रास सि गृह्णीयः शय्याचामरणानि च ॥५६॥ वे राजा की आज्ञा से चिन्ह पाये हुवे काम के लिये दिन में धूमें और वेवारिस मुरदे को ले जावे (यह मर्यादा है) ||२५|| यथाशास्त्र राजा की भाना से निरन्तर फांसी के योग्यों को फांसी फांसी देवें और उस घध्य के कपड़े शय्या और आभरणो को ग्रहण करें। (३९३ तक मनु ने व्यभिचारोत्पन्न वरणसङ्करो की नाना प्रकार के नामों से उत्पत्ति कही। उस का ताल यह है कि उन की वर्णसङ्करता व्यभिचारजनित की वर्णसङ्करों को उत्पन्न न करें आर्यसन्तान की प्रसिद्धि रहे आगेको लोग व्यभिचार न करें उत्तरोत्तर उन्नति हो । परन्तु ४२ वे मे यह बता दिया है कि तप आदि के प्रभाव से नीचे चे होजाते हैं। तथा ४३।४४ मे पौण्डकादि का अंचे से नीचा हो जाना कहा है। ४६ से ५६ तक