पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३३

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मनुस्मृति भाषानुवाद याजनाध्यापनायौनाम तु यानासनाशनात् ।१८० यह पाप करने वाले चारों वणों की निष्कृति (प्रायश्चित्त) कही अब इन पतितों के साथ मिलने वालों के प्रायश्चित्तों को सुनिय-||१७|| एक वर्ष तक पनित के साथ मिल कर यज्ञ कराने, पढ़ाने और योनिसम्बन्ध करने से पवित हो जाता है, परन्तु सहयान सह-आसन और सह भोजन से नहीं ॥१८॥ यो येन पवितेनेपा संसर्ग याति मानवः । स तस्यैव व्रतं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये ॥१८॥ "पतितस्योदक कार्य सपिण्डैर्वान्धवैर्वहिः । निन्दितेऽहनि साया सात्यत्विगुरुसन्निधौ ॥१८॥ जो मनुष्य इन पाप करने वालों में से जिन के संसर्ग को

पाकर पतित होता है, यह उस के संसर्ग की शुद्धि के लिये वही

"प्रत करे ।।१८।। 'सपिण्ड बान्धव लोग प्राम के बाहर जीते हुवं ही पतित की उतक्रिया निन्दित दिन के सायकाल में ज्ञाति वाले ऋत्विज् गौर गुरु के सामने करें ॥१८॥" 'तासीघटमा पूर्ण पर्यस्येोतवत्पदा । अहोरात्रमुपासीरत्राशीचे वान्धवैः सह ।।१८।। निवर्तेरश्च तस्मात्त सम्मापणसहासने । दायाधस्य प्रदानं च यात्रा चैव हि लौकिकी ॥१८४।' "और दासी जल भरे घड़े को प्रेतवन (दक्षिणाभिमुख होकर) पैरसे गिरावे और वान्धवों के साथ एक दिन रात आशौच रक्खें ॥१८२] और उस पतिन से बोलना, साथ बैठना और दायभाग देना और नौता खौत सब छोड़ देवें ॥१८॥" ज्येष्ठता च निवर्तेत ज्येष्ठावाप्यं च यद्धनम् । 44 .