पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३२

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एकादशाऽध्याय ६२९ भोजन करके तथा प्रतिग्रह लेकर विना जाने विन पतित हो जाता और जान कर करने से उन्हीं में मिल जाता है ||१७दुना। स्त्री को भर्ता एक घर मे चन्द रक्वे और जो पुरुष को पराई स्त्री के गमन करने मे प्रायश्चित कहा है वह उस (स्त्री) से करावे सा पुनः प्रदुष्येत्त सहशेनोपयन्त्रिता । कृच्छु चान्द्रायणे चैव तदस्याः पावन स्मृतम् ।।१७७॥ चदि अपने सजातीय पुरुष की बहकाई हुई फिर विगढ जावे तो इसका पवित्र करने वाला कच्छचान्द्रायण व्रत कहा है ।। (१७७ ३ मे आगे ३ पुस्तकों में यह श्लोक अधिक है --) [ब्राह्मणक्षत्रियविशां स्त्रियः शूद्रेऽपसंगताः । अप्रजाताविशुध्येयुः प्रायश्चिचेन नेतराः।।] द्विजो की जो त्रिये शूह से मन करें वे सन्तान, उत्पन्न न करे तव तो (क्त) प्रायश्चित्त से शुद्ध हो परन्तु सन्तान उत्पन्न करलेने वाली नही) ॥१०॥ यत्करोत्येकरात्रेण वृपली सेवनाद् द्विज.। तदर्भक्ष्यभुग्जपन्नित्यं त्रिभिव्यपाहति ॥१७॥ वेश्या वा शूटा गमन में एक रात्रि में द्विज जो पाप करता है, उस (पाप) को नित्य भिक्षा मांग कर भोजन और गायत्री का जप करने से तीन वर्ष में दूर कर पाता है ।।१७ एपा पापकृतामुक्ता चतुर्णामपि निष्कृतिः। पतिनैः संप्रयुक्तानामिमा शृणुत निष्कृती. १७६] मंवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् ।