पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३५

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३३२ मनुस्मृति भाषानुवाद वालध्नांश्च कृतघ्नांश्च विशुद्वानपि धर्मतः । शरणागनहन्ध स्त्रीहन्श्च न सम्वसेत् ॥१६० विना प्रायश्चित्त किये हुवे पाप करने वालो के साथ कुछ भी व्यवहार न करे और प्रायश्चित्त किये हुवो की कमी निन्दा न करे ॥१८९॥ परन्तु बालक को मारने वाले और किये उपकार को दूर करने वाले तथा शरण आये को और स्त्री को मारने वाले के साथ धर्म से शुद्ध होने पर भी न रहे ॥१९०।। येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि । तांधारयित्वा बीन् कृच्छान्यथाविध्युपनाययेद् ।१९११ प्रायश्चित्र चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः । ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेपामप्येतदादिशेत् ॥१९२।। जिन दिनातियो का उक्त काल में यथा शास्त्र गायत्री उपदेश और उपनयन न किया गया हो, उन को तीन कुच्छ व्रत कराकर यथा शास्त्र उपनयन करे ॥१९१॥ विरुद्ध कर्म करने वाले और द को न पढ़े हुवे द्विज प्रायश्चित्त करना चाहें तो उन को भी "ह चीन कृच्छ का प्रायश्चित्त बतावे ॥१९२|| यद्गहितेनार्चयन्ति कर्मणा ब्राह्मणा धनम् । तस्योत्सर्गेण शुध्यन्ति अपेनतपसैव च ॥१९॥ जपित्वा त्रीणिसावित्र्याः सहस्राणि समाहिता मासं गोष्ठेपयः पीत्वा मुच्यते सत्प्रतिग्रहान् ॥१६॥ जो ब्रामण निन्दित कर्म करके धन कमाते हैं, वे उस के ने और जप तप से शुद्ध होते हैं ॥१९३॥ एकाप्रचित्त हुवा