पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३६

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एकादशाऽध्याय १३३ 1 तीन सहन गायत्री का जप कर गोष्टमे एक महीने भर दुग्याहार करके बुरे दान लेने के पाप से छटचा है ॥१९४॥ उपवासकृशं तं तु गोत्रजात्पुनरागतम् । प्रणतं प्रतिपृच्छेयुः साम्यं सौग्येच्छसीति किम् ॥१६॥ सत्यमुक्त्वा तु विप्रेषु विकिरचवमं गवाम् । गोमिः प्रवर्तिते तीर्थ कुर्युस्तस्य परिग्रहम् ॥१६६।। उस उपवास से कश और गोष्ट में आये तथा नम्र हुवे को (प्राह्मण) पूछे कि सौम्य ! क्या तू हम लोगों के वरावर होना चाइता है ।।१९।। ब्राह्मणो के आगे ठोक र कह क गायो को पास देवे । गायो के पवित्र किये तीर्थ मे वे (ब्राह्मण) उस का समान व्यवहार आरम्भ करे ।।१९६|| वास्यानां याजनं कृत्वा परेपामन्त्पकर्म च । अभिचारमहीनं च त्रिभिः कच्छी व्यपाहति ।१६ । श.प.गत परित्यज्य वेद विप्लान्य च विजः। संवत्सर यवाहारस्वत्यापनपतेष ते १६८ (पूर्वोक्त) बास्यो को यज्ञ कराने और दूसरी को अन्त्येष्टि कराने तथा प्रहीन अभिचार कराने पर ३ कृन्छो से शुद्ध होता है ॥१९७॥ शरण श्राये को परित्याग करके और पढ़ाने के अयोग्य को वेद पता कर उस से उत्पन्न हुवे पाप को एक वर्ष तक जो का थाहार करने वाला दूर करता है ॥१५॥ श्वसृगालखरैर्दष्टो ग्राम्यैः क्रव्याभिरेव च । नरारवाष्ट्रवराहैश्च प्राणायामेन शुध्यति ।१६६ ८०