पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६४

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प्रपमाऽध्याय अचर (शक्षादि) या चर (मनुष्यादि) के हेतु भूत चीजों में प्रविष्ट होता है । तब उनमे मिलकर शरीर का धारण करता है ।।१६।। एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यामिदं सर्व चगचरम् । सजीवयति चातलं प्रमापयनि चाव्ययः ।।५७॥ ऐसे वह अविनाशी परमामा शयन और जाग्रत् से इस संपूर्ण चराचर को निरन्तर उत्पन्न और नष्ट करता है ।।५७|| "इदं शास्त्रं तु कृत्वासी मामेव स्वयमादितः । विधियद् ग्राह्यामास मरीच्यादीस्वहं मुनीन् HE" "मनुजी कहते हैं कि इम (नया) ने मुस्टिक प्रथम इस धर्म- शास्त्र का निर्माण करके विधिवत् मुझको उपदेश किया. अनन्तर मैने मरीचयादि मुनियोको पढाया ।।५।। "एतद्वोभ्यं भृगुः शास्र श्रावयिष्यत्यशेपतः । एतद्धि मचोऽधिजगे सरीमेपोऽखिलं मुनिः ।।५।। ततस्तथा म नेनोक्तो महर्षि मनुना भृगुः । तानववीपीन्सर्वान्धीतात्मा श्रृयतामिति ॥६०॥ 'यह सम्पूर्ण शास्त्र भृगु आप लोगों को सुनावेगा जो मुमासे सम्पूर्ण पढ़ा है ।। ५९ ॥ अनन्तर महर्षि भृगु ने मनु की आज्ञा पाकर प्रसन्न चित्त होकर उन सब ऋषियों के प्रति कहा कि सुनिये ॥ ६ ॥ "स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वश्या मनवाऽपरे । सृष्टवन्तः प्रजाः स्वाः स्वा महात्मानामहौजसः ६१॥ स्वागचिपश्चौतमश्च ताममो रैवतस्तथा ।