पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६३

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मनुस्मृति भाषानुवाद (कभी मो अनुभव न किया हुवा प्रलय का वर्णन लोगों की ममम में कुछ न कुछ पाजावे, हम लिये प्रलय का परमामा की गत्रि का वर्णन किया गया है। वन्तुन. परमात्मा चेतनम्वरूप सदा जागने वाला ही है। जिस प्रकार सर्य बनम्पतियों के उगर्न और सूचने का हेतु है परन्तु किमी वृक्षादि को उगाने वा सुखाने के समय सूर्यका म्वरूप नही बढनना किन्तु गफमा ही रहता हुवा सूर्य उगाना और मुखाता भी है। किन्तु यं वृचादि अपने स्वभाव, भेद और अवन्याभेद से सूर्य का प्रभाव अपने उपर अनेक प्रकार का डालने है । यद्यपि मूर्य का प्रभाव है एक ही प्रकार का । गोले ही परमात्मा के मव गुण सदा पक्रने ही रहते हैं. परन्तु प्रकृति कभी विकृत होती है कभी प्रकृत और इमीसे जब विकृत होती है तव परमात्माको व्यापमता का फल उनि और जब प्रकत होती है नव उसकी व्यापकता का फल प्रलय हो जाता है ) |४|| तमाऽ तु ममाश्रित्य चिरं तिष्ठति सेन्द्रियः । न च स्वांकुरुते कर्म नाकामति मूर्तिनः ॥५५॥ यदाणुमात्रिका भूत्वा बीजं स्थारनु चरिणु च । समाविशति संसृष्टस्तदा मूर्ति विमुञ्चति ।।६।। जब यह जीव इन्द्रियों सहित बहुत बालपर्यन्न तम (मपुप्ति) को आश्रय करके रहता है और अपना कर्म (श्वासप्रश्वामादि) नहीं करता तव शरीर से पृथक हुवा रहता है ।।५०। जब अणु- मात्रिक होकर (अर्थान् श्रण है मात्रायें जिसकी उस अणुमात्र को. पुर्यष्टक कहते हैं अर्थात् शरीर प्राप्त होने की आठ सामग्री जीव १ इन्द्रिय २ मन ३ बुद्धि ४ वामना ५ कर्म आयु ७ अविद्या ८ ये आठ मिलकर अणमात्र कहलाते हैं तो प्रथम अणमात्रिक होकर)