पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६५० मनुस्मृति भाषानुवाद प्राय यत्त्यावर ब्रह्म त्रयोयस्मिन्प्रतिष्ठिताः । स गुह्योन्यास्त्रिवृद्ध दोयस्तं वेद स वेदवित् ।२६५। सब वेदों का जो प्राथमिक तीन अक्षरयुक्त ओंकाररूप वेद है, जिसमे तीनो वेद स्थित हैं वह दूसरा त्रिद्वद ओंकार गह (बीजरूप) है। जो इसके स्वरूपार्थ (परमात्मा) को जानता है वह वेदवित् है। (तीन प्राचीन पुस्तको मे और राघवानन्द के माष्य में नीचे लिखा श्लोक अधिक मिलता है जिसकी आवश्यकता भी है क्योकि उपसंहार करना उचित भी था जैसा कि मनु की शैली है । तद- नुसार इस श्लोक में पूर्वाध्याय के विषय का उपसंहार और अगले अध्यायके विषयका प्रस्ताव है अनुमान कि द्वादशाध्यायके प्रारम्भ के दो प्रक्षिप्त श्लाको को बढ़ाने वाले ने यह श्लोष मनुसंहिता को भृगुसंहिता बनाने के लिये निकाल दिया है। वह यह है:- [एप घोमिहितः कृत्स्नः प्रायश्चित्तस्य निर्णयः । निश्रेयसं धर्मविधि विपस्येमं निबोधत ॥] यह तुमसे समस्त प्रायश्चित्त का निर्णय कह दिया अब ब्रामण के इस मोक्षधर्मविधान को सुनो ।। तथा इसी से आगे दो पुस्तकों मे अर्ध श्लोक ग्रह अधिक पाया जाता है:- [पृथग्वामणकल्पाम्यां स हि वेदस्त्रिवृत्स्मृतः । यह ब्राह्मण अन्यों और कल्पनाओं से पृथक् "निवृत्" वेद कहा गया है) २६५|| इति मानवे धर्मशास्त्र (भृगुप्रोक्तायां संहितायां ) एकादशोऽध्यायः॥११॥ इति श्री तुलसीरामस्वामिविरचिते मनुस्मृतिभाषानुवादे एकादशोऽध्यायः ॥११॥